प्लग में जब कार्बन आ जाए... (व्यंग्य)

व्यंग्य

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✒ सईद खान

प्लग में जब कार्बन आ जाए... (व्यंग्य)

    सत्यानाश हो इस मुई स्कूटर का। कमबख्त आज फिर नखरे बताने पर आमादा है। 
    मैंने जेब से रुमाल निकालकर माथे पर छलक आए पसीने को पोंछा और गुस्से में स्कूटर को दो-चार किक और दे मारा। लेकिन कमबख्त ने तो जैसे स्टार्ट न होने की कसम खा रखी थी। बस-थोड़ा सा भुरभुराती और बंद हो जाती। कमबख्त के नखरे देखकर जी चाहा कि उसे आग लगा दूं। अगर यह मेरी खरीदी हुई होती भैनजी तो कसम ले लो, आज मैं इसे आग के हवाले कर ही दिया होता। लेकिन यह क्योंकि मुझे दहेज में मिली थी, इसलिए मैं चाहकर भी ऐसा नहीं कर सका। पसीने से लथपथ मेरी हिम्मत जवाब दे चुकी थी। यहां तक कि पैरों में किक मारने तक की ताकत भी नहीं बची थी। मैंने उसे स्टैंड में खड़ी किया और उसकी सीट पर बैठकर लंबी-लंबी सांसे लेने लगा। सच् तो यह है कि उस वक्त मैं उस घड़ी को कोस रहा था, जब यह नामुराद स्कूटर मेरे गले पड़ी थी।

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    अल्लाह सलामत रखे मेरे स्वसुर को, जिन्होंने दहेज में स्कूटर देकर मेरी शान में झूठे चांद... सारी, चार चांद जड़ दिए थे। मुझे याद है, जिस दिन पहली बार मैं इसे लेकर घर से निकला था, मेरे चेहरे पर चौदहवीं के चांद जैसी चमक थी। मेरी छाती फूलकर दो इंच और चोड़ी हो गई थी। पूरा मोहल्ला मुझे और मेरी स्कूटर को फटी-फटी निगाहों से घूर रहा था। मोहल्ले की औरतें अपने-अपने दरवाजों पर खड़ी कानाफूसियां कर रही थीं। कुछ विश्वस्त चुगलखोरों के माध्यम से बाद में मुझे ज्ञात हुआ कि जमीला बाजी कमर आपा से कह रही थी-‘देख कम्मो, येई वाली है।’ जवाब में कमर आपा ‘हूं’ कहकर मुंह बिसूर दी थी। रूबी तो मेरी स्कूटर की आवाज सुनकर आटा गूंथना छोड़कर स्कूटर देखने के लिए दरवाजे पर आ खड़ी हुई थी। लेकिन जैसे ही उसकी नजरें मेरी नजरों से टकराई थी, वह आसमान की ओर देखने लगी थी, गोया मुझे यह जताना चाह रही थी कि यदि मेरी शादी उससे हुई होती तो उसके अब्बा इससे अच्छी स्कूटर मुझे दिए होते।

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    और वो मुराद साइकिल वाले की दुकान में बैठे साबिर, सलीम और बहादुर..., उनके सीने पर तो जैसे सांप ही लोट गया था। मेरे जो दोस्त पहले मुझमें कोई दिलचस्पी नहीं लेते थे, अब हाथ उठा-उठा कर मुझे विश कर रहे थे। मुझे चाय-पान आफर कर रहे थे। और हां, वो कलीम मास्टर। उन्हें भला मैं कैसे भूल सकता हूं। मोहल्ले में कल तक वे अकेले ही स्कूटर वाले थे इसलिए जैसे ही उन्हें खबर लगी थी कि दहेज में मुझे स्कूटर मिलने वाली है, वे फौरन अपने एमए पास लड़के का रिश्ता लेकर मेरी ससुराल जा धमके थे और जी भरकर मेरी बुराईयां मेरे स्वसुर के सामने गिनवा दी थी। उन्होंने मेरे स्वसुर के सामने मेरे अनपढ़ होने तक की पोल खोलकर रख दी थी, लेकिन भला हो मेरे स्वसुर मोहतरम का। अड़े रहे अपनी जबान पर। बोले-‘स्कूटर ...सारी, बेटी दूंगा तो सईद को ही दूंगा। जबान दे चुका हूं।’ और सचमुच मेरे स्वसुर अपनी जबान पर अड़े रहे। बेटी तो दिए ही दिए, स्कूटर बोनस में थमा दिए। 

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    लेकिन अल्लाह झूठ न बुलवाए, अब लगता है कि वे मुझे सिर्फ बेटी ही दिए होते तो अच्छा होता। मुई स्कूटर तो गले ही पड़ गई है। जुमा-जुमा आठ ही दिन तो हुए हैं शादी हुए (स्कूटर मिले) यह अभी से टें बोल गई। मैं सोच में पड़ गया कि आखिर जिंदगीभर का साथ यह कैसे निभा पाएगी? आखिर बीवी भी तो इसी के साथ की है। वह तो एक बार नहीं रूठी अब तक। और एक यह है। ‘कमबख्त।’ मन ही मन स्कूटर को एक और गाली देते हुए मैंने गुस्से में उसे दो बार और किकियाया कि शायद अब इसे कुछ शर्म आ जाए। और यह स्टार्ट हो जाए। लेकिन वाह री स्कूटर। स्टार्ट होना तो दूर रहा। भुरभुराई तक नहीं। 

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    थकाहारा मैं फिर स्कूटर की सीट पर बैठ गया। अचानक मेरी नजर अपनी ओर आते बुक्की दा पर पड़ी। उन्हें देखकर मेरा कलेजा मुंह को आ गया। मैंने सोचा, अगर बुक्की दा को पता चल गया कि स्कूटर रास्तें में टें बोल गई है तो मेरी सारी हेकड़ी निकल जाएगी। उफ्फ! मैं बुरी तरह खीज गया। अब इस मुसीबत से कैसे बचूं? लेकिन तब तक बुक्की दा मेरे नजदीक पहुंच चुके थे। मुझे देखकर बोले-‘की दादा, एनी प्रोब्लोम?’

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    ‘अरे नहीं।’ मैंने हंसकर कहा-‘कोई प्राब्लम नहीं...।’
    ‘तारपोरे तुमी ए खाने की कारो?’ उन्होंने चश्मे के नीचे से झांककर स्कूटर का मुआयना करते हुए पूछा-‘गाड़ी ट खराब आहो न की?’

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    मैंने जल्दी से कहा-‘अरे नहीं दादा। गाड़ी को भला क्या होगा। अभी दस ही दिन तो हुआ है गाड़ी को।’
    ‘हूं।’ वे बोले- ‘तो ठीक हाय। और तुम्हारा वाइफ। वो कैसा है?’
    ‘वो भी ठीक है दादा।’ मैंने उन्हें टालने की गरज से कहा-‘दोनों साथ के ही तो हैं। जब इसे कुछ नहीं हुआ तो उसे क्या होगा।’

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    ‘वो तो ठीक हाय।’ वे बोले-‘लेकिन दोनों का मैन्युफैक्चरिंग डेट सेम थोड़े ही होगा।’ कहकर वे ही-ही कर हंसने लगे। उनकी हंसी मुझे चुभ रही थी लेकिन मैं उन्हें कुछ बोलने की स्थिति में नहीं था। वह तो अच्छा हुआ कि थोड़ी देर बाद वे खुद ही वहां से चले गए। उनके जाने के बाद मैंने स्कूटर स्टार्ट करने की कोई कोशिश करने की बजाए उसे नजदीक के किसी गैरेज तक खींचकर ले जाना गवारा किया। हालांकि यह कोशिश भी मुझे काफी भारी पड़ी। वहां से निकटतम गैरेज की दूरी एक किलोमीटर से अधिक नहीं थी। लेकिन उतनी ही देर में मुझे अपनी ताजा-ताजा आई जवानी के दमखम की समीक्षा करने पर मजबूर होना पड़ गया था। किसी तरह गैरेज पहुंचकर मैंने स्कूटर मिस्त्री के हवाले किया और वहीं पड़ी एक गंदी सी कुर्सी पर पसरकर अपनी उखड़ी सांसों को संयत करने लगा। 

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    अचानक मेरी नजर वहां पेंट हो रही एक स्कूटर पर पड़ी। स्कूटर को पेंट होता देख, एकबारगी मेरा दिल इतनी जोर से धड़का, गोया एक ही बार धड़क कर शांत हो जाना चाहता हो। मुझे लगा, कहीं मुझे बेवकूफ तो नहीं बना दिया गया है? कहीं पेंट-सेंट करवा कर कोई पुरानी स्कूटर तो मुझे नहीं थमा दी गई है, और मैं उसे ब्रांड न्यू माल समझकर जबरदस्ती इतरा रहा हूं। लेकिन अगले ही पल मेरा यह डर खुद ही काफुर हो गया। मैंने सोचा, मेरी स्कूटर पुरानी नहीं हो सकती। बिदाई (जुदाई) के वक्त अपने सास-स्वसुर और उनसे ज्यादा सालों को हिचक-हिचक कर रोते मैंने अपनी आंखों से देखा था। बेटी या बहन के लिए कोई इतना थोड़े ही रोता है। वह तो आती-जाती रहती है। खुद को दिलासा देकर मैं चश्मे की कांच साफ करने लगा। तभी मिस्त्री ने मुझसे कहा-‘प्लग में कार्बन आ गया है।’

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    ‘तो?’ मेरे मुंह से बेसाख्ता यह अलफाज निकल गया। जैसे मिस्त्री से मैं यह जानना चाह रहा होउं कि मैं क्या करुं?

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    वह बोला-‘कुछ नहीं। बस दो मिनट लगेगा। कार्बन साफ होते ही गाड़ी स्टार्ट हो जाएगी।’ कहकर वह कार्बन साफ करने लगा। जबकि मैं सोच रहा था, यह भी कोई बात हुई यार। इत्ते से प्लग की इत्ती औकात कि उसकी नाक में मक्खी क्या बैठ गई, साले ने हमारी नाक में दम कर दिया। और सिर्फ प्लग ही क्यों भैनजी। अगर प्लग ठीक काम करता रहे और चक्का पंक्चर हो जाए तो भी यही हाल हो। मैंने सोचा, कहीं ऐसा तो नहीं कि इसके तुफैल मिली बीवी भी ऐसी ही नखरैली हो। लेकिन अगले ही पल मैंने खुद ही अपना यह ख्याल जहन से निकाल फेंका। जुमा-जुमा आठ ही दिन में मुझे उसकी कैरिंग कैपिसिटी और हार्स पावर का अंदाज हो गया था। इसलिए मुझे यकीन है कि उसके साथ ऐसा कोई प्राब्लम नहीं हो सकता। वह लंगड़ी होकर भी मेरे बच्चों की देखभाल कर सकती है। हाथ न रहे तो भी मेरा साथ दे सकती है। गूंगी-बहरी हो जाए तो भी वह मेरे लिए सवा लाख की ही रहेगी। 

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    एक साल बाद।
    मैं समझ नहीं पा रहा था कि बेगम को अचानक क्या हो गया है? वह उखड़ी-उखड़ी सी क्यों है? मेरी किसी बात का ढंग से जवाब भी नहीं दे रही है। मैं पूछ कुछ रहा हूं, वह जवाब कुछ दे रही है। यह भी नहीं बता रही कि उसके मिजाज में आए बदलाव की वजह क्या है? मैंने उसकी ट्यूनिंग करने की सभी कोशिशें करके देख ली लेकिन वह वैसे ही भुरभुराती रही जैसे उस दिन स्कूटर भुरभुरा रही थी। अचानक मुझे प्लग साफ करते मिस्त्री की याद आ गई। उसने कहा था-‘डइविंग सीख लेना ही काफी नहीं होता भाई साहब। गाड़ी की नब्ज पहचानना भी आना चाहिए। कम से कम प्लग साफ करना तो आना ही चाहिए। नहीं तो अक्सर ऐसी परेशानी पेश आएगी।’ प्लग साफ करते मिस्त्री की याद ने मुझे खासी राहत पहुंचाई। जैसे कोई राह सूझ गई हो मुझे। मैंने अचानक उसे अपनी बाहों में लिया और उसके कान के पास अपना मुंह ले जाकर, जैसे मिस्त्री ने बारीक तार से प्लग में सुरसुरी की थी, बोला-‘चलो! पिक्चर चलते हैं। खाना भी बाहर ही खाएंगे।’ थोड़ा ना-नुकुर करने (भुरभुराने) के बाद वह तैयार हो गई। मैंने मन ही मन मिस्त्री को थैंक्स कहा और दहेज वाली स्कूटर में उसे लेकर थिएटर की ओर उड़ चला।

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