कहानी
✒ सईद खान : दुर्ग
‘कुछ तो शर्म कर। शर्म नहीं तो थोड़ा लिहाज ही कर ले और कम अज कम इतना ही बता दे कि तू ऐसी क्यों है ? और ऐसी ही क्यों है 0? कभी तू इत्ता मेहरबान हो जाती है कि तुझसे बेपनाह मोहब्बत हो जाती है और कभी इत्ता निष्ठुर हो जाती है कि लगता है, अब-बस, तेरा ये सफर यहीं खत्म हो जाए तो बेहतर है। लेकिन अगले ही पल तू फिर कोई लॉलीपॉप लेकर सामने आ खड़ी होती है।
तू किसी पर इत्ता मेहरबान क्यों हो जाती है रे कि वह ‘पैसे’ का पर्याय बनकर रह जाता है और किसी से इत्ता मुंह क्यों मोड़े रहती है कि वह पैसे-पैसे का मोहताज होकर रह जाता है। कहीं तू सारे जहां की खुशियां उंडेले रखती है तो कहीं, कई सारे लोग अंजुलीभर खुशी के लिए भी जिंदगीभर तरसते रह जाते हैं। आखिर तू ऐसी क्यों है रे?
अच्छा, चल..., तुझसे बाद में बात करते हैं। बेगम का फोन आ रहा है।‘
‘ हैलो। अस्सलाम अलैकुम।’
‘व अलैकुम अस्सलाम। कैसे हो?’
‘बढ़िया....।’
‘बढ़िया...? ’
‘मेरा मतलब है, अल हम्दो लिल्लाह। खैरियत से हूं।’
‘क्या कर रहे थे? ’
‘द्वारिका के फ्लाईओर की मुंडेर पर बैठा जिंदगी से बातें कर रहा था।’
‘वहां...? गिर जाते तो...?’
‘नहीं गिरता। जिंदगी ने गिरने-संभलने के बहुत पाठ पढ़ा दिए हैं। अब संभलना आ गया है।’
‘तो भी...जिंदगी से बात ही करनी थी गर, तो हिमालय की चोटी पर चले जाते।’
‘बात जिंदगी से करनी थी, हिमालय की चोटी पर जाकर क्या करता, इसलिए यहां बैठा हूं, जिदगी यहां अपने असल रूप में नजर आती जाती है।’
‘इससे अच्छा किसी पब या कनाट प्लेस चले जाते...जिदगी वहां पूरे शबाब में होती है…।’
‘पब या कनाट प्लेस में उसका सिर्फ उजला रूप ही दिखाई देता, फ्लाई ओवर के नीचे नजर आने वाला चिथड़ों में लिपटा उसका चैप्टर तो ढका ही रह जाता। फ्लाई ओवर के एक ओर चमचमाती गाड़ियों में रोटी कमाने और उसे पचाने के जुगाड़ में भागता अभिजात्य वर्ग और नीचे रोटी के एक टुकड़े के लिए तरसते लोगों के बीच का फर्क मुझे अक्सर परेशान किए रहता है, इसलिए ...।’
'हूं…। किसी नतीजे पर पहुंचे…? मेरा मतलब है, फ्लाई ओवर के ऊपर और नीचे की जिंदगी के अंतर में तालमेल बैठाने का कोई उपाय सूझा?’
‘सूझ ही रहा था कोई उपाय कि तुम्हारा फोन आ गया।’
‘हूं...। तुम जिंदगी की तलाश में थे और मेरा फोन आ गया...मतलब समझे..., जिंदगी तुम्हारे आसपास ही है।’
‘वो तो है...। तुम ही जिंदगी हो..., तुम्हारा साथ कामयाबी पर ताली बजाने वालों का नहीं, परेशानी में कांधे पर धरे हाथ जैसा है। चचा गालिब का एक शेर याद आ रहा है-
‘बना है शाह का मुसाहिब, फिरे है इतराता,
वगरना शहर में गालिब की आबरू क्या है।’
'मुझे तलाश जिंदगी की नहीं, जिंदगीनुमा पहेली के हल की है बेगम, जो मिल नहीं रहा है।’
‘तुम्हारी ये फलसफाना बातें मेरी समझ में नहीं आती। खैर ! रात का एक बज रहा है, घर चले जाओ।’
‘तुम्हारी फिक्र सता रही है। तुम्हारी ट्रेन एक घंटा और लेट हो गई है। दो बज जाएगा उसे आते-आते।’
‘मेरी फिक्र मत करो, जैद है मेरे साथ। जैसे-तैसे तो रिजर्वेशन मिला है। अगर नहीं गई तो हसमत और नौरीन की परेशानी बढ़ जाएगी। अलीजेह का मसला भी है, कल से उसकी स्कूल की छुट्टी लग जाएगी, मैं नहीं पहुंची तो नौरीन और हसमत उसे किसके भरोसे छोड़कर अपने काम में जाएंगे। उनमें से किसी एक को छुट्टी लेकर घर में रहना पड़ेगा।’
‘हूं…, परेशानी तो है। पता नहीं कब तक रहेगी ये परेशानी। एक बेटा-बहू दिल्ली में हैं, दूसरा बेटा-बहू हैदराबाद में और बेटी रायपुर में। हम पेंडलूम की तरह हैदराबाद और दिल्ली के बीच झूलते रहते हैं। पता नहीं, जिंदगी में ठहराव कब आएगा। आएगा भी या नहीं?’
‘अल्लाह पर भरोसा रखो। जो है, जैसा है, अल्लाह का शुक्र है। ये बताओ, अलताफ, गजाला और हमजा कैसें हैं।’
‘अल्लाह का करम है। सब अच्छे हैं। अलताफ और गजाला का काम अच्छा चल रहा है। हमजा की पढ़ाई भी माशा अल्लाह अच्छी चल रही है।’
‘और तुम...तबियत ठीक है तुम्हारी ...दवा टाईम से ले रहे हो?’
‘हां, मैं भी ठीक हूं।’
‘कल अलताफ बता रहा था, बीपी बढ़ गया था तुम्हारा।’
‘फ्लक्चुएट होना उसकी तासीर है बेगम। वैसे भी, अपने पास एक वही तो है, जो बढ़ता भी है, बाकी सब तो माईनस में चल रहे हैं, बाल, काया, दांत... और बटुआ भी...।’
‘सेहत के तंई लापरवाही अच्छी बात नहीं है। अल्लाह न करे, अगर कुछ हो गया तो बच्चे परेशान हो जाएंगे। पैसा अलग खर्च होगा।’
‘एक यही फिक्र तो है, जो लापरवाही से रोकती है। दो दिन पहले बुखार आ गया था। अलताफ डाक्टर के पास ले गया था, डाक्टर ने नब्ज पर हाथ रखा था और कुछ दवाईयां लिखी थी और बस-इत्ते का ही आठ सौ रुपए ले लिया था। दो सौ रुपए की दवाई अलग। यानि, जरा सा बदन क्या गर्म हुआ, बेटे की जेब से एक हजार रुपए ढीले हो गए थे।’
‘वही तो...जरा सोचो...खुदा न ख्वास्ता अगर कुछ ऐसा-वैसा हो गया तो उत्ती दूर से डेड बाडी लाने में कित्ता खर्च हो जाएगा।’
‘अल्लाह रहम...। तुम अपनी सोच और फिक्र को जरा लगाम दो बेगम, एकदम डेड बाडी तक जा पहुंची।’
‘अल्लाह तुम्हें सलामत रखे...लेकिन क्या करुं...खौफ तो है, कई तरह के खौफ लगे रहते हैं, फिक्र भी होती रहती है।’
‘खैर छोड़ो...तुमने अपने बारे में नहीं बताया। तबियत वगैरह ठीक है?’
‘मैं भी ठीक हूं। सेहत को लेकर मैं कित्ता सजग रहती हूं, तुम जानते हो।’
‘हां, वो तो है। अच्छा ये बताओ, घर से निकलते वक्त फिरोज को नसीहत कर दिए थे न कि रोज शाम को घर जाकर आंगन की लाईट जला दिया करेगा और सुबह लाईट बंद करने के अलावा अखबार उठाकर करीने से रख दिया करेगा।’
‘हां, बोल दी थी।’
‘बेहतर है। ऐसा करना, एक बार उसे और ताकीद कर देना। घर में मुतवातिर अंधेरा या आंगन में पड़े अखबार देखकर चोरों को अंदाज हो जाता है कि घर में कोई नहीं है।’
‘फिक्र मत करो, अल्लाह बेहतर करेगा।’
‘इंशा अल्लाह...।’
‘अम्मी कह रहे थे, अपना मकान बेच दो। कह रहे थे, तुम दोनों की बाकी जिंदगी तो अब बच्चों के साथ हैदराबाद, दिल्ली और रायपुर में गुजर जाएगी। घर बंद पड़ा रहेगा। इससे बेहतर है कि ....।’
‘उस घर में ईट और गारे के साथ हमारे जज्बात भी पिन्हा हैं बेगम। हम उसे बेचने का ख्याल भी नहीं ला सकते दिल में।’
‘वोई तो...। मैंने अम्मी से कह दी कि दोबारा ऐसी बात न करें।’
‘खैर, अलताफ कह रहा था, अगले महीने गजाला की एक हफ्ते की छुटटी रहेगी। कह रहा था, अगर एक हफ्ते के लिए आप जाना चाहो तो टिकट बनवा देता हूं।’
‘क्या करोगे अकेले जाकर। घर में अकेले कैसे रहोगे...खाना वगैरह कहां खाओगे।’
‘क्यों...तुम्हारा आना नहीं हो सकेगा क्या? एक हफते बाद तो अलीजेह की स्कूल भी खुल जाएगी। तुम भी आ जाते तो कुछ दिन साथ में रह लेते। बहुत अर्सा हो गया है तुमसे अलग रहते हुए।’
‘वो तो ठीक है, लेकिन इतनी जल्दी लौटने की बात सुनकर हसमत और नौरीन को अच्छा नहीं लगेगा। मेरे वहां रहने से उन्हें काफी सहूलत हो जाती है, घर को भी थोड़ा व्यवस्थित कर देती हूं मैं।’
‘हूं…, ठीक है। ऐसा करते हैं, एक-डेढ़ महीना रह लो। विंटर वेकेशन में लौटते हैं हम अपने घर। फिर पूरा एक महीना साथ रहेंगे।’
‘हां, थोड़ा वक्त बख्तावर और किंजा के साथ बिता लेंगे। हमारे वहां से जाने के बाद अकेली हो जाती है बेचारी।’
‘बेटियों का क्या है बेगम। उनकी भलाई अपने से दूर रहने में ही है। बेटी, मां-बाप से जित्ता दूर रहे, उनकी अजदवाजी जिंदगी उत्ती ही कामयाब होती है।’
‘फिर भी, कभी-कभी मन बहुत उदास हो जाता है। कभी इस घर की फिक्र कभी उस घर की।’
‘और मेरी…?’
‘तुम्हारी फिक्र अब क्या करूं? जिंदगी गुजर गई एक-दूसरे की फिक्र करते-करते। अब तो बस एक ही फिक्र है कि पोता-पोती और नवासी बड़े हो जाएं तो हमारी जरूरत खत्म हो जाए। फिर हम अपने घर लौट जाएंगे। और कभी-कभी बच्चों से मिलने जाया करेंगे। जैसे अभी कभी-कभी अपने घर लौटते हैं।’
‘लेकिन.... हम अकेले कैसे रहेंगे अपने घर में...बच्चों के बिना...?’
‘रह लेंगे। आखिर दूसरे भी तो रह रहे हैं, बच्चों के बिना। साबिर भाई, अजीम मौलाना, निसार भाई और वो...अनीस बाजी...उनके दोनों बच्चे तो अमरीका में हैं। वो दोनो भी तो अकेले रह रहे हैं। हम भी रह लेंगे।’
‘क्या ही अच्छा होता, अगर बच्चे हमें छोड़कर जाते ही नहीं, किसी के भी बच्चे मां-बाप को छोड़कर कहीं नहीं जाते, वहीं रहते साथ-साथ।’
‘ये कैसे हो सकता है भला...बच्चों के लिए उस छोटे से शहर में क्या है...?’
‘नहीं, मैं कह रही थी, हम उन्हें इत्ता पढ़ाते ही नहीं...।’
‘ये तो खुदगर्जी वाली बात हो गई बेगम। आखिर बच्चों का भी तो कोई फ्यूचर है...दुनिया कित्ती आगे बढ़ गई है, हमारा वक्त बच्चों का मुस्तकबिल रोशन बनाने में उनकी मदद करने का है।’
‘अल्लाह उन्हें कामयाब करे। बस-दुआ है कि वो फरमाबरदार बनें रहें।’
‘इस मामले में हम अपने बच्चों की मिसाल दे सकते हैं। और सिर्फ बेटा, बेटी ही नहीं, अल्लाह का शुक्र है कि बहुएं और दामाद भी काबिल-ए-मिसाल हैं।’
‘अल्लाह का शुक्र है। अल्लाह उन्हें ऐसा ही दीनदार बनाए रखे।’
‘आमीन। अच्छा चलो, तुम्हारी ट्रेन का टाईम हो गया है। अपना ध्यान रखना।’
‘क्यों...वहां फ्लाई ओवर की मुंडेर पर बैठकर पता नहीं किस जिंदगी से लंबी-लंबी बातें करते नहीं थक रहे थे और यहां इस जिंदगी से बात करते हुए इत्ती जल्दी ऊब गए।’
‘जो जिंदगी मिली है, मैं उसके अहल कभी नहीं था बेगम, इसलिए ऊबने और थकने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। मैं तो-बस, इत्ता चाह रहा था कि यह थोड़ी और बेहतर हो जाती तो....।’
‘तो ....? ’
‘तो कम अज कम तुम्हे मेरी डेड बाडी की फिक्र नहीं करनी पड़ती।’
‘तुम भी न... खैर...। रहने दो, जो है, जैसा है, अल्लाह का शुक्र है। चलो, अल्लाह हाफिज।’
‘अल्लाह हाफिज।’
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