व्यंग्य
✅ सईद खान
बटुक जी का संस्कृति बोध
घर के मेन गेट पर नाम के साथ ‘लेखक’ लिखवाना इतना महंगा पड़ेगा, यह मैंने सोचा भी न था। पे्रस से अभी घर पहुंचा ही था कि बटुक जी आ धमके। गली के नुक्कड़ पर पीले रंग का जो बड़े सहन वाला मकान है, जिसके सामने कुछ गाय और बकरियां हमेशा बंधी रहती है, बटुक जी का है। बाजार में परचून की बड़ी सी दुकान है। आठ, नौ या शायद दस बच्चे हैं। पत्नी एक ही है। पत्नी को देखने का सौभाग्य कभी नहीं मिला। यदा-कदा उनकी आकृति ही दिखाई दे जाती है-बस। जब वे घर के दरवाजे पर खड़ी हो अपने किसी बच्चे को पुकार रही होती हैं-‘अरे ओ बिटवा। का भैरे हुई गवा हो।’ बस-तभीच।मैंने बटुक जी का गर्मजोशी से स्वागत किया। उनका यों अचानक आगमन मुझे पुलकित कर रहा था और मैं जल्द से जल्द उनके आगमन का प्रयोजन जानने को आतुर हुआ जा रहा था। वैसे वे सज्जन पुरुष हैं और मिलनसार भी। आठ-दस बच्चे पैदा करने की घृष्टता पुश्तैनी भी हो सकती है।
‘एक बात तो बताओ।’ बटुक जी आसन जमाते हुए बोले-‘ये ससुरी संस्कृति क्या होती है?’
‘संस्कृति...?’ मैं बुरी तरह चैंक गया। सवाल बिल्कुल अप्रत्याशित था इसलिए मैं फौरन कोई जवाब नहीं दे पाया। तभी बेगम चाय की ट्े लिए वहां प्रविष्ठ हुई। मैंने चाय का एक कप बटुक जी की तरफ बढ़ाया और एक खुद लेकर बैठ गया।
‘संस्कृति तो संस्कृति होती है बटुक जी।’ मैं चाय का एक लंबा घंूट लेकर बोला-‘और हमें इस पर गर्व होना चाहिए कि हमारी संस्कृति महान है।’
‘हमारी बोले तो?’ उन्होंने चाय का एक लंबा घूंट सुड़का।
‘हमारी बोले तो, हम सब की।’ मैं बोला-‘हम सब भारतवासियों की।’
‘और पाकिस्तानियों की?’ उन्होंने एक और घूंट सुड़का।
‘उनकी अपनी संस्कृति होगी।’
‘उनकी भी महान होगी?’
‘हो सकता है।’ मैंने लापरवाही से जवाब दिया।
‘और जापानियों की?’ उन्होंने अगला सवाल दागा।
‘उनकी भी होगी। सभी देश की अपनी संस्कृति होती है।’
‘सभी की महान भी होती होगी?’
‘हां, क्यों नहीं। जरूर होती होगी।’
‘और सभी अपनी संस्कृति पर गर्व भी करते होंगे?’
‘हो सकता है। देशवासियों को अपनी संस्कृति पर गर्व करना भी चाहिए।’
बटुक जी एक पल के लिए चुप हो गए। जैसे किसी गहरी सोच में डूब गए हों। फिर बोले-‘लेकिन ये तो अभी तक क्लियर ही नहीं हुआ है न कि संस्कृति आखिर है क्या बला? तुम जो हो न, ऊपरे-ऊपर बता रहे हो। तनिक परखी मारकर बताओ तो कुछ दिमाग में बैठे भी।’
‘परखी मारकर?’ मैं चैंककर बोला-‘ये परखी मारकर बताना कैसा होता है?’
‘वो ऐसा...।’ खाली कप टेबल पर धरते हुए वे बोले-‘हम तो ठहरे तीसरी-चैथी तक पढ़े-लिखे। सो हमको हमारी भाषा में समझाओ। जैसे हम बोरे में परखी मारकर ग्राहक को चावल दिखाते हैं, वैसे ही तुम संस्कृति में परखी मारकर हमें समझाओ।’
मेरा दिल चाहा कि मैं अपने बाल नोंच लूं लेकिन इससे पहले कि मैं ऐसी कोई कोशिश करता, बटुक जी फिर बोल पड़े-‘वो क्या है कि आज हमारा छुटका हमसे पूछ बैठा। कह रहा था, संस्कृति पर उसे निबंध-उबंध लिखना है। भला बताओ, अब जिस चीज से हमारा कोई वास्ता ही नहीं, उसके बारे में हम उसे क्या बताते? हां, अगर कोई हमसे दाल-चावल और गुड़-शक्कर के बारे में कुछ पूछे, तो हम उसे बताएं भी। सो हम यहां चले आए। मोहल्ले में एक तुम ही तो हो पढ़े-लिखे।’
बटुक जी ने जेब से चांदी की एक डिबिया निकालकर खोली। डिबिया ऊपर तक खैनी से भरी हुई थी। डिबिया से उन्हें एक चुटकी खैनी उठाकर उसे ओंठ के पीछे रखते देख मुझे लगा, समुद्र मंथन से निकले हलाहल को भगवान आशुतोष ने भी ऐसे ही निर्विकार भाव से कंठ में रखा होगा। मैं इस ख्याल में डूबा ही हुआ था कि डिबिया को वापस जेब के हवाले करते हुए वे पुन: बोल पड़े-‘अब ये भी कोई विषय हुआ लिखने का? जब हम चैथी जमात में थे, पाठशाला और गाय-वाय पर लिखा करते थे। गांधी जी पर भी खूब लिखा हमने। लेकिन संस्कृति पर न कभी खुद लिखा न मास्टर ने लिखवाया। हम तो पहले ही जानते थे कि यहां सब मास्टर ऐसे ही हैं। इसलिए बच्चों को पढ़ाने के पक्ष में हम कभी नहीं रहे। वो तो हमाई लुगाई है जो बच्चों को डाक्टर, इंजीनियर और पता नहीं क्या-क्या बनाने के सपने देखती रहती है।’ थोड़ी देर रुक कर वे बोले- ‘हमारा बस चले तो हम सबको दूसरी-तीसरी जमात के बाद दुकान पर बैठा दें।’ बटुक जी मुंह में बिखरे खैनी के कणों को जबान की नोक से इकट्ठा करते हुए आगे बोले-‘छुटका कह रहा था कि वो कोई धराई हुई सी चीज होती है। क्या कहते हैं उसको... हां, समझ लो जैसे हम अपनी खैनी की डिबिया तुम्हारे पास धरा दूं।’
‘धरोहर?’ मैं बोला।
‘हां, हां।’ बटुक जी एकदम से उछल पडे़। बोले-‘यही कह रहा था छुटका भी। ‘खूब पकड़े हो तुम भी। यही कारण तो है कि हम तुम्हारे पास आए हैं।’
‘देखिए बटुक जी।’ मैं उन्हें टालने की गरज से बोला-‘संस्कृति जो होती है.....।’
‘कोई धराई हुई सी चीज होती है।’ बटुक जी बीच में ही बोल पड़े-‘मैं समझ गया। संस्कृति हमारी धरोहर है। लेकिन ये तो बताओ कि इसे धराया किसने है?’
‘हमारे पुरखों ने, और किसने?’ मैं तनिक झल्लाकर बोला।
‘अरे! तो इसका मतलब हमारे पुरखों के पास धराने को और कुछ नहीं रहा था जो संस्कृति धरा गए? मेरा मतलब, कुछ जमीन जायदाद, रुपया-पैसा और सोना-चांदी वगैरह...।’
‘संस्कृति को आप समझ क्या रहे हंै बटुक जी ? संस्कृति इन सबसे ज्यादा कीमती है।’
‘अच्छा!’
‘और क्या।’
‘मतलब...।’ बटुक जी आश्चर्य से बोले-‘तोले-वोले के हिसाब से बिकती होगी।’
‘उफ्फ!’ मैं झुंझलाकर रह गया। फिर भी खुद को संभालकर मैंने कहा-‘संस्कृति का कोई मोल नहीं लगा सकता। न तोले-वोले में न सेर-छटांक में। वह अनमोल है।’
‘अच्छा!’ वे पहलू बदलकर बोले ‘तो ये बताओ...। वह होती कैसी है। मेरा मतलब है, दिखती कैसी है?’ वे तनिक उत्सुक नजर आने लगे थे।
‘संस्कृति कोई देखने-दिखाने की चीज नहीं होती बटुक जी।’ मैं जरा खीजकर बोला-‘आप समझने की कोशिश क्यों नहीं करते। अच्छा-देखिए, जैसे हवा होती है। होती है न।’
‘हां, होती है।’
‘दिखती है?’
‘नहीं... दिखती तो नहीं है।’
‘तो समझ लो संस्कृति भी कुछ वैसी ही है। होती तो है लेकिन दिखती नहीं.....।’
‘लेकिन...।’ वे अपेक्षाकृत गंभीर लहजे में बोले-‘हवा महसूस तो होती है। तो जैसे हवा महसूस होती है, वैसे ही संस्कृति क्यों महसूस नहीं होती? भले ही न दीखती हो। महसूस तो हो कि संस्कृति है। आपको होती है महसूस? मुझे तो नहीं होती। हां, हवा जरूर महसूस होती है मुझे। और मैं कहता हूं, वाह! क्या शानदार हवा है। हालांकि वह दिखती नहीं है।’
मेरा दिल चाहा कि मैं उन्हें दोनों हाथों से पकड़कर उठाउं और उन्हें घर के बाहर ले जाकर पटक दूं। लेकिन प्रत्यक्ष: मैं बोला-‘अच्छा बटुक जी, ये तो बताइये कि आपके बच्चे कितने हैं?’
‘यही कोई आठ-दस।’ वे दो टूक लहजे में बोले।
उनका जवाब सुन मैं मुस्कुराए बिना न रह सका।
‘ये तो आम बात है।’ मेरी मुस्कान का अर्थ समझकर वे बोले-‘हमारे गांव में तो लगभग सभी के इतने ही होते है। किसी-किसी के तो दस-बाहर भी होते हैं।’
मैं बोला-‘खैर! आप ये बताईये, आप घर में अपने बच्चों को कुछ सिखाते भी होंगे। मेरा मतलब है कुछ संस्कार डालते होंगे उनमें। कुछ अच्छी-बुरी बातें बताते होंगे उन्हें।’
‘हां। बताते तो हैं कभी-कभी। जब छुटका, बढ़का या मंझली आपस में झगड़ते हंै तो उनके कान के नीचे एक चमाट धर कर हम उन्हें बताते हैं कि ऐसा मत करो। आपस में प्यार से रहो।’
‘यही...यही तो...।’ मैं चहका। मुझे लगा, शायद अब मैं बटुक जी को संस्कृति का पाठ पढ़ाने में कामयाब हो जाउंगा। मैं बोला-‘यही तो संस्कृति है। ये जो आप अपने बच्चों को अच्छी बातों की शिक्षा दे रहे हैं। उनमें अच्छे संस्कार रोप रहे हैं। यही तो संस्कृति है! और यही धरोहर भी।’
‘अच्छा! तो ये है मुई संस्कृति?’
‘हां, और क्या।’
‘और यही धरोहर भी।’
‘हां, और क्या।’
‘अच्छा!’ बटुक जी सोच में पड़ गए। उनकी भाव-भंगिमा से लग रहा था, जैसे वे संतुष्ट नहीं हो पाए हैं। अंतत: थोड़ी देर बाद वे पुन: बोल पड़े-‘तो ये है संस्कृति..... हूं। ठीक है। चलता हूं। चलकर छुटका को बता दूं।’ वे उठकर खड़े हो गए। मैं भी खड़ा हो गया। इस डर से कि कहीं वे फिर से न बैठ जाएं। मंै उन्हें दरवाजे तक छोड़ने गया। रास्ते भर वे चुप थे। दरवाजे पर पहुंचे तो बोले-‘ई संस्कृति... जैसा कि आप बता रहे हो कि अच्छी चीज है, तो छुटका, बड़का और मंझली इसे सहेज कर धरते क्यों नहीं? सुबह धरा कर दुकान जाता हूं और शाम को लौटकर देखता हूं तो सब गंवा चुका होता है। फिर वही मारकाट... और गाली-गलौच...।’
‘संस्कृति का फंडा ही ऐसा है बटुक जी। यह वैसी ही सामने आती है जैसी धराई जाती है।’ मैंने कहना चाहा लेकिन प्रत्यक्षत: कुछ बोला नहीं। डर था कि अगर कुछ कहता तो वे फिर शुरू हो जाते। इसलिए चुप ही रहा।
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