लेख
✒ सईद खान
इंदिरा मार्केट स्थित सफदर हाशमी चौक में कुछ विशेष अवसरों पर जुटने वाली उस भीड़ के ज्यादातर चेहरे जाने-पहचाने होते हैं। कुछ ही चेहरे राहगीरों के होते हैं, जो आते-जाते भीड़ देखकर उत्सुकतावश खुद उसका हिस्सा बन जाते हैं। भीड़ के बीच सड़क पर दो-तीन शव पड़े हैं। फौजी पोशाक में एक सिक्ख दो युवकों के कांधे का सहारा लेकर लड़खड़ाते हुए आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा है। उसी समय एक आतंकवादी सामने आ जाता है और फौजी पर गोलियों की बौछार कर देता है। गोली लगने से फौजी भी सड़क पर गिर पड़ता है। भीड़ ताली बजाती है। कुछ लोग पूरे मंजर को अपने मोबाईल में कैद करने में मशरूफ रहते हैं। थोड़ी देर बाद भीड़ छंट जाती है। जमीन पर पड़े फौजी और युवा अपने कपड़ों से धूल झाड़ते हुए उठ खड़े होते हैं और अपनी राह हो लेते हैं। इसके साथ ही चौक की आमद-ओ-रफ्त भी रूटीन पर आ जाती है।
चौक पर यह नजारा हर साल 15 अगस्त और 26 जनवरी को देखा जा सकता है। इन दो अवसरों के अलावा देशवासियों को भीतर तक झकझोर देने वाली हर बड़ी घटना के बाद भी सफदर हाशमी चौक पर ऐसे ही भीड़ जुटती है। भीड़ के बीच एक सिक्ख पिता अपने दोनों और कभी-कभी तीनों युवा पुत्रों के साथ इंसानों को इंसानियत का पाठ पढ़ाने का जतन करता है। सिक्ख परिवार की हरकत देख भीड़ कभी हंसती है और कभी अवाक सी हो जाती है। फिर ताली बजाती है और अपनी राह हो लेती है।
जमशेदपुर (टाटा) में जन्मे लगभग 65 वर्षीय गुरुदेव सिंह भाठिया को इस बात से कोई सरोकार नहीं कि शहर उनके जज्बात की कितनी कद्र करता है और उनके जज्बात से समाज में कोई बदलाव आ भी रहा है या नहीं। उन्हें तो जैसे नशा है, हर बुरी बात की मुखालफत करने का। एक जुनून सा है, मजहब, मुल्क, हवस और सियासत के नाम पर इंसानियत को शर्मसार करने वालों के मुख पर पड़ा मुखौठा नोंचने का। जिसे वे ‘गीता’ की नसीहत ‘कर्म किए जा..’ की तर्ज पर अंजाम दिए जा रहे हैं। जमशेदपुर से काम की तलाश में 1990 में वे परिवार सहित दुर्ग आ गए थे। यहां के एक करीबी शहर (दल्लीराजहरा) में उनकी एक बहन ब्याही थीं। बहन का सहारा मिला तो वे यहीं के होकर रह गए। कुछ दिनों तक हाथ ठेला लेकर गली-कूचे में घूमकर फैंसी आयटम बेचकर परिवार चलाया करते थे। धंधा चल निकला तो बाद में उन्होंने दुकान खोल ली। किस्मत ने साथ दिया और दुकान चल निकली। बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि स्कूली जीवन में रामलीला में अभिनय करने का शौक था। यह पूछे जाने पर कि इस तरह चौक पर हर साल 15 अगस्त, 26 जनवरी और अन्य अवसरों पर नाट्य मंचन करने के पीछे आपका मकसद क्या है, उन्होंने कहा, देश की संस्कृति, गौरव और देशवासियों की वीरता की दास्तां लोगों ने विस्मृÞत कर दी है। जनप्रतिनिधि ही लोकतंत्र पर कुठाराघात कर रहे हैं। फिजा में एक दहशत सी तारी है। किसी को किसी पर भरोसा नहीं रहा। मानवीय मूल्य कहीं गुम होकर रह गए हंै। थोड़ा रुककर अपनी बात उन्होंने इस तरह आगे बढ़ाई-‘वो दौर याद करें, जब लोग चहक कर कहते थे, ‘मेरे घर मेहमान आए हैं।’ अपने लोगों की हालत, उनकी सोच और उनकी मानसिकता देख कर दुख होता है तो पहुंच जाता हूं, सफदर हाशमी चौक, लोगों को यह समझाने की तुम उस देश के वासी हो, जिसमें दुनिया का नेतृत्व करने की क्षमता है। तुम आखिर जा कहां रहे हो?’
आपके बच्चे भी आपके साथ होते हैं।
हां, तीनों बेटे दिलीप, मनप्रीत और गुरमीत। तीनों स्क्रिप्ट लिखने से लेकर मंचन तक मेरे साथ होते हैं। मेरे छह बच्चे हैं। तीन बेटे और तीन बेटियां। सभी की शादी हो गई है। मैं अपने बेटों पर कोई दबाव नहीं बनाता कि उन्हें मेरा साथ देना ही है। आज के बच्चे युवा होते ही अपनी राह खुद चुनते हैं। मुझे इस बात का गुरूर है कि मेरे बच्चे मेरे जज्बात की कद्र करते हैं।
उनकी दुकान पर चर्चा के दौरान उनके पुत्र मनप्रीत उर्फ काके और दिलीप उर्फ लाटी ने कहा, दुकान से फुरसत नहीं मिलती। लेकिन पापा का आदेश होता है तो फुरसत निकाल ही लेते हैं, जैसे-तैसे। सब्जेक्ट पर चर्चा के बाद स्क्रिप्ट लिखने का काम मनप्रीत करता है। एक दिन पहले थोड़ा रिहर्सल कर लेते हैं-बस।
श्री भाठिया की पत्नी निर्मल कौर के अलावा बेटियां और दामाद भी उनके शौक का पूरा सम्मान और यथा संभव सहयोग करते हैं। नाट्य मंचन के जरिए मोहब्बत का पैगाम देते श्री भाठिया को लंबा अर्सा गुजर गया है। उन्हें नहीं पता कि लोगों को नसीहत करने की उनकी यह कोशिश कब रंग दिखाएगी। देखना यह भी है कि ‘अंधा बांटे रेवड़ी’ की तर्ज पर पुरस्कार बांटने वाले जागरुक लोगों की नजर उन पर कब पड़ती है।
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