बुद्धिजीवी

कहानी

बुद्धिजीवी

                                                                                                                                     सईद खान

बुद्धिजीवी

    उसने पैंट की जेब में हाथ डाला और जेब में पड़े सिक्कों को ऊंगलियों की मदद से गिनकर अनुमान लगाने की कोशिश करने लगा कि जेब में कितने पैसे हैं। कुल चार सिक्के थे। इसका मतलब चार रुपए तो हैं ही उसके पास। और अगर एक या दो सिक्का 2 रुपए का हुआ तो उसकी जेब में 5 अथवा 6 रुपए भी हो सकते हैं। उसने सोचा, तो भी, इतने कम पैसों में क्या होना है, इससे तो दो सिगरेट भी नहीं आएगी। कुछ सोचकर उसने शर्ट की जेब में रखा कागजों का ढेर निकाला और एक-एक कागज को उलट-पुलट कर देखने लगा। इस उम्मीद में कि किसी कागज के बीच 5 या 10 का नोट निकल आए। लेकिन उसे निराश होना पड़ा। चीथड़ों में तब्दील हो रहे कागजों के ढेर में एक भी नोट नहीं था। 
    उसके सामने कुर्सी पर बैठा पुरुषोत्तम पेज को फिनिशिंग टच दे रहा था। उसने सोचा, क्या उसे पुरुषोत्तम से दस-बीस रुपए मांग लेना चाहिए। लेकिन अगले ही पल, यह ख्याल आते ही कि दो दिन पहले जब वह कौशिक से बीस रुपए ले रहा था, पुरुषोत्तम वहां पहुंच गया था। ऐसे में आज उसका पुरुषोत्तम से रुपए मांगना ठीक नहीं होगा। पता नहीं वह उसके बारे में क्या धारणा बना ले। उसकी मन:स्थिति से अनजान पुरुषोत्तम कुर्सी से उठा और बोला-‘पेज सेव कर दिया हूं। प्रिंट लेकर बास को दिखा दो।’ 

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    ‘ओ के।’ कहकर उसने पुरुषोत्तम से हाथ मिलाया और प्रिंटर के पास जाकर खड़ा हो गया। थोड़ी देर बाद प्रिंट हाथ में लिए वह बास के सामने खड़ा था।
    बास की नजरें उस वक्त टीवी स्क्रीन से चिपकी हुई थी। एसी की वजह से केबिन कूलिंग चेंबर की तरह हो गया था। पसीने से लगभग बुरी तरह भीग चुकी उसकी बनियान से टकराकर एसी की ठंडकता उसे स्वर्ग सा आभाष करा रही थी। यही वजह थी कि उसने खुद बास का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की कोई कोशिश नहीं बल्कि चुपचाप खड़ा एसी का आनंद लेता रहा। वह सोच रहा था, ‘लोग खामखा ग्लोबल वार्मिंग का खौफ दिखाते हैंं। स्वर्ग जैसी ठंडकता तो आदमी के वश में है। फिर काहे की ग्लोबल वार्मिंग।’ 

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    तभी बास उसकी ओर आकर्षित हुआ और एक हुंकारा भरकर बोला-‘हूं...। पेज हो गया आपका।’
    ‘जी सर।’ कहते हुए हाशिम ने जल्दी से प्रिंट उनके सामने रख दिया। प्रिंट देखते हुए एक खबर पर ऊंगली रखकर उन्होंने पूछा-‘ये खबर किसकी है।’ उस वक्त हाशिम को वे किसी रीछ से कम नहीं लगे। अपनी मुंडी को आधी प्रिंट पर और थोड़ी ऊपर उठाकर वह जब भी सामने खड़े रिपोर्टर को देखते, रिपोर्टर को वे रीछ ही दिखाई देते। उनके गले से आ रही आवाज भी घुरघुराती सी लगती।
    ‘जी...।’ हाशिम ने उनकी मुंडी के बीच से प्रिंट पर ­ाांककर देखने की कोशिश करते हुए जवाब दिया-‘आशीष जी की है।’
    ‘हूं...आशीष की।’ खबर पढ़ते हुए वे बड़बड़ाए-‘आशीष से इससे ज्यादा उम्मीद भी नहीं की जा सकती। खबर के न सिर का पता है न पैर का...पूरी खबर टेबल डिस्पैच है... वर्जन भी नहीं है... फोटो का एंगल भी खबर से मैच नहीं कर रहा है...।’ तीन कालम की उस खबर में बास ने ढेरों खामियां गिनाते हुए कहा-‘खबर, सड़क के गड्ढों की है, तो इसकी पड़ताल भी तो हो कि गड्ढे क्यों हैं। और इसका दोषी कौन है। सड़क कब बनी और इतनी जल्दी उसकी परतें उधड़ क्यों गई। और ये, कि आखिर कब तक लोगों को गड्ढों से भरी सड़क पर धक्के खाते हुए आवाजाही करनी पड़ेगी।’ 
    ‘जी सर।’
    ‘जी सर क्या।’ 
    ‘सर, मेरा मतलब है, खबर में ये सब होना चाहिए।’
    ‘बिलकुल होना चाहिए। इसके बगैर कोई खबर पूरी कैसे हो सकती है।’
    ‘आयंदा ध्यान रखूंगा सर।’
    ‘आयंदा से तुम्हारा मतलब है, अभी ये खबर ऐसे ही जाने दें।’ बास ने गुर्राकर हाशिम से कहा -‘लोग हसेंगे खबर पढ़कर। हमारे कांपीटीटर अखबार मजाक उड़ाएंगे हमारा।’ फिर बोले-‘कहां है आशीष, बुलाओ उसे।’
    ‘सर, वो तो जा चुके हैं।’ हाशिम ने भोलेपन से जवाब दिया। 
    ‘क्या मजाक है यार।’ हाशिम का जवाब सुनकर वे एकदम से झुझला गए थे। उनकी भाव भंगिमा से ऐसा लग रहा था, जैसे प्रिंट उठाकर हाशिम के मुंह पर दे मारेंगे। लेकिन ऐसा कुछ करने की बजाए वे बोले-‘ऐसा करो, इस खबर को निकालो यहां से और इसकी जगह कोई दूसरी खबर लगाओ।’
    ‘सर, दूसरी खबर तो है नहीं। और रिपोर्टर भी सारे जा चुके हैं।’ 
    ‘क्या तमाशा बना रखा है यार तुम लोगों ने।’ बास के मुंह से झुंझलाहट भरी आवाज निकली। बोले-‘तुम लोग आखिर ये बात कब समझोगे कि अखबारनवीस होने के नाते समाज के प्रति कितनी बड़ी जिम्मेदारी है हम पर। हमारा काम कागज काले करने का नहीं है। समाज को, शासन को और प्रशासन को आईना दिखाने का है। अगर हम इसी तरह लापरवाही करते रहे तो इस देश में रावण राज कायम होने में देर नहीं लगेगी।’

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    हाशिम चुप ही रहा। 
    ‘ऐसा करो।’ कुछ सोचकर वे बोले-‘परसों दिलबर ने एक खबर बनाई थी। वह भी सड़क की ही खबर है। इसकी जगह उस खबर को लगा दो।’ 
    ‘लेकिन सर।’ हाशिम तनिक ­िा­ाकते हुए बोला-‘उस खबर को भगत जी ने लेने से मना किया है।’
    ‘भगत जी ने...क्यों।’ 
    ‘सर, वो कह रहे थे कि वो सड़क कुशवाहा कंस्ट्रक्शन की है।’ 
    ‘तो...।’ 
    ‘सर, कुशवाहा जी अग्रवाल जी के अच्छे दोस्त हैं।’ हाशिम बोला-‘कुशवाहा जी जब भी भोपाल जाते हैं, अग्रवाल जी से जरूर मिलते हैं।’ 
    ‘कुशवाहा...। अच्छा वो... तो उस सड़क का ठेका उसी के पास है।’ 
    ‘जी सर।’
    ‘क्या दिलबर को ये बात पहले नहीं मालूम थी कि वो सड़क कुशवाहा कंस्ट्रक्शन की है।’
    ‘जी सर। उन्हें नहीं मालूम था।’ हाशिम बोला-‘खबर बनने के बाद जब खबर भगत जी के पास पहुंची तो उन्होंने उसे लेने से मना कर दिया।’
    ‘तो ऐसा करो...।’ कुछ  सोचकर थोड़ी देर बाद वे अपेक्षाकृत नरम लहजे में बोले-‘इसी खबर को जाने दो, लेकिन ध्यान रहे, आयंदा ऐसी खबर नहीं जानी चाहिए।’ 
    ‘जी सर।’ उसने जल्दी से प्रिंट उनके हाथ से लेते हुए पूछा-‘सर पेज छुड़वा दूं।’
    ‘हां, जाने दो।’ 
    बास के हाथ से प्रिंट लेकर वह जल्दी से केबिन के बाहर निकल आया। 
    आफिस के गेट से निकलते हुए उसने दीवार पर लगी घड़ी देखी। सवा नौ बज चुके थे। गेट के बाहर उसके इंतजार में खड़े प्रदीप को साथ लेकर वह लंबे-लंबे डग भरता हुआ आफिस के ठीक सामने से जा रही छोटी लाईन की ओर बढ़ गया। रेलवे लाईन में पैदल चलते हुए स्टेशन पहुंचने में उन्हें बीस से पच्चीस मिनट लगते हैं। हालांकि रात होने की वजह से रेलवे लाईन पर चलना दिक्कतभरा होता है। रेलपांत के किनारे लगे फिश प्लेट, प्वायंट्स और नट-बोल्ट के अलावा आसपास की ­ाुग्गी ­ोपड़ी के रहवासियों की रेल पांत के किनारे ‘हल्का’ होने की संस्कृति से बचकर निकलना आसान नहीं होता। लेकिन उसके और प्रदीप उपाध्याय के पास इसके अलावा और कोई चारा नहीं होता। सड़क मार्ग लंबा पड़ता है और रिक्शा या आटो वाले को देने के लिए उनके पास पैसे नहीं होते इसलिए वे स्टेशन आनेजाने के लिए इसी लौहपथ गामिनी को पैदल पथ गामिनी की तरह इस्तेमाल करते थे।
    स्टेशन पहुंचने पर भीतर जाने से पहले हाशिम का हाथ पकड़कर प्रदीप बाहर जाने वाले रास्ते पर मुड़ गया तो हाशिम बोला-‘पैसे हैं जेब में जो उधर जा रहे हो, मेरे पास कुल पांच रुपए हैं।’ उसने अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी। 
    ‘डोंट वरी।’ प्रदीप बोला-‘मुत्मईन सींकड़ी’ के लिए मैं पहले ही जुगाड़ कर लेता हूं। दो घंटे का सवाल है यार। बिना इसके सफर कटेगा कैसे।’
    ‘मुत्मईन सींकड़ी’ से प्रदीप का आशय सिगरेट से था। सिगरेट को उसने ‘मुत्मईन सींकड़ी’ का नाम दे रखा था और शराब को ‘मुत्मईन सीरप’ कहता था। वह कहता- ‘आदमी को कोई और लत भले न हो, लेकिन सिगरेट की लत जरूर हो। खासकर रिपोर्टर्स को इसकी लत होनी ही चाहिए।’ वह आगे कहता-‘जिन रिपोर्टर्स को सिगरेट की भी लत नहीं है, तू देखना, वो साले जल्दी ही पागल हो जाएंगे।’
    सिगरेट लेकर हम वहीं एक पत्थर पर बैठ गए थे और लंबे-लंबे कश लगा रहे थे। दिनभर की थकान, ­ाुं­ालाहट, बास की फटकार और कल की चिंता में सिगरेट का हर कश सचमुच खासा इत्मिनान देने वाला होता। मु­ो लगता, प्रदीप ने यूं ही इसका नाम मुत्मईन सींकड़ी नहीं रखा है।
    दुर्ग-छपरा सारनाथ एक्सपे्रस चूंकि दुर्ग से ही चलती थी इसलिए अक्सर अपने निर्धारित समय रात सवा दस बजे तक रायपुर पहुंच जाती थी। सवा नौ बजे आफिस से निकलकर पैदल पथ गामिनी पर पैदल चलते हुए हम ट्रेन के पहुंचने से पहले ही स्टेशन पहुंच जाते थे। हमारे पास इतना वक्त भी रहता था कि स्टेशन के भीतर जाने से पहले हम एक सिगरेट पी लें। तब तक ट्रेन भी आ जाती। हम सीधे सारनाथ की एस-6 बोगी में घुस जाते। यह बोगी एमएसटी होल्डर्स के लिए अलाउड थी। यही वजह है कि रायपुर-बिलासपुर के बीच डेली अपडाउन करने वालों से बोगी भरी रहती। रोज-रोज एक साथ, एक से डेढ़ घंटे के सफर ने उन्हें परिवार सा बांधे रखा था। हंसी-मजाक से भरे वो दो घंटे अगले दिन सुबह नौ पांच की लोकल पकड़ने और घरेलु चिंताओं से जू­ाने के लिए ऊर्जा प्रदान करने वाले होते। 
    ‘क्या बात है, बड़ी दिलेरी से पैसे खर्च किए जा रहे हैं।’ अगले दिन नौ पांच की लोकल से रायपुर पहुंचने पर एक पानठेले में प्रदीप को रुकता देख हाशिम बोला-‘लगता है, लाटरी लग गई है।’ 
    ‘भगवान न करे यार कि हमारे नाम की कभी लाटरी भी खुले।’ सिगरेट जलाते हुए प्रदीप बोला-‘इस शरीर को धक्के खाकर खाना पचाने की आदत हो गई है। फोकट में पैसा मिलेगा तो हार्ट फेल हो जाएगा या दिमाग फिर जाएगा अपना।’ 
    सिगरेट जलाकर हम छोटी लाईन की ओर मुड़ गए थे। रास्ते में प्रदीप बोला-‘कल रात पत्नी से पंगा हो गया था। देर रात तक नींद नहीं आई थी। अब आंखे गड़ रही है।’
    ‘क्या हो गया था।’ 
    ‘वही रोज वाला मैटर। बास से कहकर वापस बिलासपुर क्यों नहीं आ जाते। जैसे मेरे बोलने पर मु­ो रायपुर भेजा गया है।’ 
    ‘यही हाल अपना भी है यार।’ हाशिम बोला-‘बेगम कहती है, तनख्वाह तो बढ़ी नहीं, ऊपर से रायपुर जानेआने का खर्च सिर पर आ गया। उसे इस बात का भी अफसोस है कि जब तक बिलासपुर में थे तो गाहे-ब-गाहे कान्फें्रस में कोई गिफ्ट-शिफ्ट भी मिल जाता था। अब तो उससे भी हाथ धो बैठे। ऊपर से वो शौकत मियां का ताना...।’ 
    ‘शौकत मियां...अच्छा वो अखबार वाले...क्या नाम है अखबार का...। प्रदीप कुछ याद करने की कोशिश करता हुआ बोला-‘हां, याद आया, धधकती ज्वाला...यही न।’
    ‘हां।’ हाशिम बोला-‘बेगम के मायके में उसके घर के पास रहते हंै। पहले बर्तनों में कलई करने का काम करते थे। पता नहीं कैसे किसी अखबार से जुड़ गए और बाद में अपना अखबार भी निकालने लगे। बेगम का कहना है कि उसके देखते ही देखते वह कार वाला हो गया है। जबकि पहले साईकिल भी नहीं थी उसके पास।’
    ‘फिर।’ 
    ‘फिर क्या।’ हाशिम बोला-‘अक्सर उसी का ताना देती है। बेगम के हिसाब से मैं बर्तन में कलई करने वाले से भी गया गुजरा हूं। एक दिन जब मैंने गुस्से में बेगम से कहा कि मैं उसकी तरह बेगैरत नहीं हूं, तो कहती है, तो हो क्यों नहीं जाते बेगैरत, रोका कौन है।’
    हाशिम की बात पर प्रदीप की हंसी छूट गई। वह उसके कंधे पर हाथ रखकर बोला-‘ये सौ टके की बात है यार। ढेर सारा पैसा कमाने की जरूरी शर्ताें में एक यह भी है कि आदमी अपना जमीर गिरवी रख दे।’
    ‘जमीर से याद आया।’ हाशिम ने एकदम से विषय बदलते हुए कहा- ‘तू किसी अमीर भाई की बात कर रहा था। उनका क्या हुआ।’
    ‘अमीर भाई। अच्छा वो...वो मामला निपट गया यार जैसे-तैसे।’ कहते हुए प्रदीप रेल पटरी से बाहर निकला और दो कदम चलकर फिर पटरी पर चलने लगा था। उसके सामने किसी ‘हल्का’ होने वाले का ‘वजन’ आ गया था। पटरी पर वापस आकर उसने अपनी बात जारी रखी। बोला-‘उस मामले में एसपी साहब ने अच्छा सपोर्ट किया। बाद में समाज के प्रतिष्ठित लोगों से कहकर दोनों के बीच सुलह भी करवा दिया।’ प्रदीप ने जेब से एक और सिगरेट निकालकर सुलगा ली थी। एक सिगरेट उसने हाशिम की ओर भी बढ़ाई थी लेकिन हाशिम ने मना कर दिया तो सिगरेट को जेब में वापस रखते हुए वह बोला-‘कभी-कभी मु­ो लगता है कि अगर मैं बीच में नहीं आया होता, तो दहेज प्रताड़ना के मामले में अमीर भाई का पूरा परिवार अब तक जेल में होता। अच्छे लोग है बेचारे। समाज में अच्छी खासी इज्जत है। बहू भी सम­ादार लगी। पता नहीं कैसे बहकावे में आ गई थी।’ थोड़ा रुककर उसने अपनी बात आगे बढ़ाई। बोला-‘अपने प्रोफेशन में यही एक बात तो है, जो इस पेशे से बांधे हुए है। ग्लैमर, रोमांच और एप्रोच...।’
    ‘तथाकथित।’ हाशिम ने उसकी बात काटकर कहा।
    ‘तथाकथित...।’ प्रदीप ने असमंजस के से भाव में दोहराया। फिर ठहाका लगाकर बोला- ‘ठीक कहता है, तथाकथित ग्लैमर, रोमांच और एप्रोच।’
    तभी उनके पीछे से ट्रेन की सीटी की आवाज सुनाई दी उन्हें। दोनों ने पीछे पलटकर देखा। धमतरी से आने वाली छोटी लाईन की ट्रेन सीटी बजाते हुए आ रही थी। उसे देखकर दोनों पटरी से नीचे उतर गए। ट्रेन जैसे-तैसे जब आगे बढ़ गई तो वे फिर पटरी पर चलने लगे। सामने जाती ट्रेन को देखकर हाशिम बोला-‘ऐसा नहीं लग रहा है, जैसे कोई बूढ़ा मैराथन में दौड़ रहा है। अब गिरा कि तब गिरा।’
    ‘नहीं।’ प्रदीप बोला- ‘ट्रेन मु­ो अपने प्रोफेशन के तथाकथित ग्लैमर, रोमांच और एप्रोच की तरह लग रही है। जैसे ये टेÑन होते हुए भी ट्रेन नहीं है। वैसे ही हमारे प्रोफेशन में ग्लैमर, रोमांच और एप्रोच की स्थिति है, है भी और नहीं भी।’ 
    ‘ये ग्लैमर, रोमांच और अप्रोच, क्या सचमुच हमारे प्रोफेशन में है। कलेक्टर, कमिश्नर और किसी बड़े अधिकारी का हमारा फोन काल रिसीव कर लेना। या विधायक का हमारे कंधे पर हाथ धरकर कहना, और खान साहब, क्या हाल हैं आपके, क्या यही ग्लैमर है।’ चलते-चलते हाशिम ने एक पत्थर को पैर से ठोकर मारते हुए कहा-‘ऐसा तो नहीं कि हमने इनका केवल वहम पाल रखा है।’
    हाशिम के जवाब में प्रदीप ने किसी शाईर का ये शेर अर्ज किया-
    ‘न छीन मु­ासे मेरे रोज-ओ-शब के हंगामे, 
    मैं जी रहा हूं, मु­ो ये गुमान रहने दे।’ 
    शेर मुकम्मल करने के बाद वह बोला-‘यार, वहम ही सही, जी लेने दे इसी खुशफहमी में।’
    ‘वाह!’ हाशिम ने जरा सा अपने सिर को झुकाया और सीधा हाथ माथे पर लगाकर बोला- ‘वाह! क्या बात है।’ 
    ‘शुक्रिया, शुक्रिया।’ प्रदीप भी किसी मं­ो हुए शाईर की तरह थोड़ा झुककर अपना हाथ माथे से लगाते हुए बोला-‘नवाजिश आपकी, जो इस नाचीज़ को आपने इज्जत बख़्शी।’
    बातें करते हुए दोनों आफिस के करीब पहुंच गए थे। लेकिन आफिस के भीतर जाने की बजाए दोनों रमटी की चाय दुकान में जाकर बैठ गए थे। यह उनका रोज का मामूल था। आफिस में दाखिल होने के पहले वे रमटी के हाथ की चाय जरूर पीते थे। 
    ‘परसों एक सज्जन मिले थे।’ चाय का एक घूंट लेते हुए हाशिम बोला-‘मेरे परिचित हैं। पूछ रहे थे, आजकल किस अखबार में हो, क्या देख रहे हो। फिर कहने लगे, चालीस-पैंतालीस हजार सेलरी तो होगी ही।’
    ‘वाह।’ प्रदीप एकदम से चहक कर बोला-‘क्या ख्याल है लोगों का हमारे बारे में, फिर, तू ने क्या कहा।’
    ‘कहता क्या, उनकी हां में हां मिलाना पड़ा। जान-पहचान के और लोग भी बैठे थे वहां। ये थोड़े न कहता कि सेलरी सिर्फ चौदह हजार है। मैंने कहा, नहीं उतनी तो नहीं, तीस हजार के करीब है, तो कहने लगे, आप लोगों को तो ऊपर से भी काफी कुछ मिल जाता है।’ 
    ‘अरे वाह!’ प्रदीप व्यंग्यात्मक लहजे में बोला-‘कहना नहीं था, तेरे मुंह में घी-शक्कर।’
    वे दोनों बाते कर ही रहे थे कि अविनाश भी वहां आ पहुंचा था। वह डेस्क इंचार्ज था और सुबह के समय अक्सर इस बात को लेकर चिढ़ा रहता था कि सुबह की मीटिंग में उसका कोई रोल नहीं है फिर भी उसे बुलाया जाता है। आफिस आते हुए अक्सर वह फटफटिया को घसीटता हुआ ही नजर आता। पूछने पर कहता-‘क्या बताऊं यार। कल ही पचास रुपए का डलवाया था। चार चक्कर तो लग ही जाते हैं। लेकिन इस बार पता नहीं कैसे, तीसरे ही चक्कर में टंकी खाली हो गई।’ तो कभी कहता-‘साली पंक्चर हो गई। पिछले महीने ही नया ट्यूब डलवाया हूं।’ फिर अपनी बात में पुख्तगी पैदा करने के लिए दूसरों को सुनाते हुए बड़बड़ाता-‘बताता हूं, साले दुकानदार को, नकली माल बेचने की एक खबर लगा दूंगा तो होश ठिकाने आ जाएंगे साले के।’ और जब उससे कहा जाता-‘यार, अब त्याग भी दे यार इसे और कोई मोटरसाइकिल फायनेंस करा ले। आजकल तो आसान शर्तों पर फायनेंस हो रहा है। फिर क्यों इतनी तकलीफ ­ोलता है, तो कहता-‘मजीठिया मिल जाने दे, सीधे कार ही फायनांस कराउंगा।’ 
    प्रदीप उसकी मजीठिया वाली बात के जवाब में एक गीत गुनगुनाने लगता-‘तु­ो गीतों में ढालूंगा, सावन को आने दो। सावन को...।’ वह बाकायदा राग भी अलापता और कहता-‘इसे लोरी की तरह गाकर सालों से मैं अपनी पत्नी को थपकी देकर सुला रहा हूं। साले, मजीठिया का सपना देख रहा है, पता नहीं कब मजीठिया का लाभ मिलेगा और कब वो सावन आएगा..।’ 
    अभी वे बातें कर ही रहे थे कि हाशिम का मोबाईल बजने लगा। जेब से मोबाईल निकालकर उसने कालर का नाम पढ़ा फिर साथियों को चुप रहने का इशारा कर मोबाईल कान से लगा लिया। अविनाश और प्रदीप ने महसूस किया कि कुछ देर तक जी-जी करने के बाद हाशिम के चेहरे का रंग बदलने लगा था। उन्हें अंदाज लगाते देर नहीं लगी कि आफिस का ही काल होगा। 
    थोड़ी देर बाद हाशिम ने तनिक गुस्से में कहा-‘ठीक है, मैं आफिस आ रहा हूं। वहीं बात करते हैं।’ कहकर उसने काल ड्राप कर दिया।
    ‘क्या बात है।’ फोन कटते ही प्रदीप ने पूछा-‘कौन था।’
    ‘और कौन होगा।’ हाशिम ­ाुं­ालाकर बोला-‘वही अपने मार्र्केटिंग हेड गुप्ता जी।’ 
    ‘गुप्ता जी, अब उन्हें काए की बदहजमी हो गई।’
    प्रदीप की बातों का कोई जवाब न देकर हाशिम बड़बड़ाया-‘साला, क्या नौकरी है यार। ठेका श्रमिक हो कर रह गए हैं।’
    ‘आखिर बात क्या है। बताएगा।’ 
    तभी रमटी चाय लेकर आ गया। उसके हाथ से चाय का गिलास थामते हुए हाशिम बोला-‘आज एक खबर लगी है अखबार में, उसी को लेकर भड़क रहा था।’ 
    ‘किसकी खबर है।’
    ‘खबर नहीं यार, विज्ञप्ती है। कोई ब्लाक अध्यक्ष नियुक्त हुआ है, उसी की विज्ञप्ति है।’ 
    ‘तो।’
    ‘कह रहा था।’ हाशिम ने चाय का एक लंबा घूंट लेकर कहा-‘इतने सालों से पत्रकारिता कर रहे हो, इतनी भी सम­ा नहीं है कि कौन सी खबर कहां लेना है, कितनी बड़ी लेना है। जिस तरह आपने खबर लगाई है, उससे तो अखबार का भठ्ठा ही बैठ जाना है।’ 
    ‘ऐसा क्या हो गया खबर में।’ अविनाश असंमजस में बोला।
    ‘कह रहा था, खबर सिंगल कालम में लगना था। बंदे की फोटो नहीं लगाना था। आपने तो सारा कुछ एक बार में ही छाप दिया है। खबर छोटी और उसकी फोटो के बिना छपती तो हमारे एक्जीक्यूटिव का दस दो का एक विज्ञापन पक जाता।’
    ‘अब बोलो।’ हाशिम के चुप होते ही अविनाश बोला-‘अब मार्केटिंग वाले हमें बताएंगे कि खबर क्या होती है और उसे किस तरह लगाना है।’ 
    उसके जवाब में प्रदीप ने अंगे्रजी की एक कहावत दोहराई-‘वाइल इन रोम, डू ऐज रोमंस डू।’ फिर बोला-‘जब हम मार्केटिंग वालों के कहने पर गृह राज्य मंत्री की पत्नी के जन्मदिवस पर बुके भेंट करते हुए एक हिस्ट्रीशीटर का फोटो कैप्शन लगा सकते हैं, क्योंकि वह बड़ा विज्ञापनदाता है, और एक दहेज प्रताड़ना के आरोपी प्रोफेसर के आरोपमुक्त होने वाली खबर छापकर स्पेस क्राईम का आरोप ­ोल सकते हैं, गड्ढों से भरी सड़क की एक कंप्लीट खबर को जब हम सिर्फ इसलिए डस्टबिन में डाल सकते हैं क्योंकि ठेकेदार मालिक का दोस्त है और सड़क की ही एक दूसरी खबर को सिर्फ इसलिए लगा सकते हैं क्योंकि उस ठेकेदार की मालिक या संपादक से कोई जान-पहचान नहीं है, तो किसी खबर को मार्केटिंग वालों के कहने पर छोटी बड़ी क्यों नहीं कर  सकते।’  एक मिनट के लिए रुककर प्रदीप ने अपनी बात आगे बढ़ाई। बोला- ‘एक फंडा हमेशा याद रखो, द फंडा इज, दैट बास इज आलवेज राइट। और ये गुमान मत पालो कि कोई तुम्हें बुद्धिजीवी कहकर सम्मानित करता है तो सचमुच तुम बुद्धिजीवी ही हो और तुम्हारे साथ बुद्धिजीवी जैसा व्यवहार किया जाना चाहिए।’ कहकर वह उठा और हाशिम व अविनाश से बोला-‘अब चलो, मीटिंग का टाईम हो गया। ये समझकर उठो कि रोम जा रहे हैं हम।’ 

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