अब के बरस

व्यंग्य

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✒ सईद खान 

अब के बरस

    भोला से मेरा परिचय कोई खास पुराना नहीं है। कुछ दिनों पहले जब मैं अपने उपन्यास के लिए किसी धांसू प्लाट की तलाश में गांव-देहात की खाक छान रहा था, एक देहात के किसी नुकीले पत्थर ने मेरी फटफटिया के टायर का बोलोराम कर दिया था। उस तपती दुपहरी की सख्त धूप में सड़क विधवा की मांग की तरह दूर तक खामोश पड़ी चिलचिला रही थी। ऐसे में फटफटिया का पंक्चर हो जाना बिल्कुल वैसा ही था, जैसे दूबर के लिए दो आषाढ़। शहर वहां से अभी भी लगभग पांच किलोमीटर दूर था। फटफटिया अगर ठीक होती तो पांच किलोमीटर का सफर कोई मायने न रखता लेकिन फिलहाल तीन तेरह नौ अठारह का मामला था। पांच किलोमीटर लंबा रास्ता पचास किलोमीटर जितना लंबा प्रतीत हो रहा था। ऊपर से देहाती लू के स्पेशल झक्कड़ जिस्म में कांटे की तरह चुभ रहे थे, सो अलग। सोचा, आए थे नमाज पढ़ने, रोजे गले पड़ गए। उपन्यास का कोई पलाट-सलाट तो मिला नहीं, उल्टे पंक्चर फटफटिया को पांच किलोमीटर खींच कर ले जाने की मुसीबत गले पड़ गई। हालांकि बंदे के लिए फटफटिया खींचने का यह पहला मौका नहीं था। इससे पहले भी अनेक अवसरों पर बंदे को फटफटिया खींचने का तजुर्बा हो चुका है। पंक्चर हो जाने पर तो अक्सर ही। और कभी-कभी रास्ते में पेटेल खत्म हो जाने पर भी। और हर बार ऐसे मौकों पर बाकायदा यह शपथ जरूर ली जाती कि आइंदा ऐसे हालात पैदा नहीं होने दिए जाएंगे। लेकिन नामुराद शपथ भी तभी याद आती, जब हालात ऐसे हो चुके होते।
    पेट्रोल रहित अथवा पंक्चर फटफटिया खींचने का बंदे का तजुर्बा बिल्कुल वैसा ही है जैसा अनचाही दुल्हन के साथ जिंदगी बसर करना अथवा अनचाहे नेता को पूरे पांच बरस बर्दाश्त करना। वो तो गनीमत थी कि उसी समय भोला वहां नमुदार हो गया था। वरना गांव की धूलभरी सड़क पर पंक्चर फटफटिया को खींचना दो अनचाही दुल्हन के साथ जिंदगी बसर करने अथवा एक अनचाहे नेता के दो कार्यकाल बर्दाश्त करने जैसा दुश्वार हो जाता।

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कहानी 


व्यंग्य


    उस चिलचिलाती धूप में भी बदन पर मात्र एक अंगोछा लपेटे वह बीड़ी खरीदने घर से निकला था। गांव की एकमात्र दुकान में बीड़ी खत्म हो गई थी, इसलिए उसे गांव के मुहाने तक जाना पड़ रहा था। वहां बाईपास की किसी दुकान में उसे बीड़ी मिल सकती थी। मुझे परेशानहाल देख, देहात सुलभ खीसे निपोरते हुए उसने मुझसे पूछा था-‘का होगे बाबू?’
    मैंने उसे अपनी परेशानी बताई तो उसने एक झटके में मुझे मेरी समस्या का समाधान सुझा दिया। वह बोला-‘त का होगे, तैं आगू डहार ले खेंचत चल, मैं पाछू डहार ले पेलत जाहूं।’
    ‘तहूं शहर जाथ अस?’ तनिक आश्चर्यमिश्रित हर्ष के साथ मैंने अपनी छत्तीसगढ़ी भाषाज्ञान का सदुपयोग किया।
    ‘नुक्कड़ तक तो जाबेच करंव।’ वह बोला-‘अउ, तैं कहीबे त थोड़अकन अउ दूरीहा तक तोर फटफटिया ल पेल देहूं।’
    ‘अच्छा! अउ पइसा कतका लेबे?’
    वह बोला-‘जतका तैं दे देबे, उतकेच ल धर लेहूं।’
    ‘फेर भी।’ मैंने उसे टटोलने की गरज से पूछा था-‘पहिले बता देबे ता बढ़िया हो जातिस।’
    वह एकदम से चुप हो गया था। मैंने सोचा, कदाचित वह हिसाब लगा रहा होगा। फिलहाल गरज मेरी थी। अगर वह सौ भी मांगता तो मुझे देना पड़ता। आखिर चिलचिलाती धूप में पंक्चर फटफटिया को पूरे पांच किलोमीटर तक खींचकर ले जाने का सवाल था। लेकिन उसने सिर्फ दस रुपए ही मांगे थे। ये और बात थी कि शहर पहुंचकर मैंने उसे पूरे बीस रुपए दिए थे।
    आज उसी भोलाराम को शहर के एक चैराहे पर खड़ा देख मैं उससे मिले बिना नहीं रह सका। फटफटिया मोड़कर जैसे ही मैं उसके करीब पहुंचा, उसने झट मुझे पहचान लिया और नमस्ते भी किया।
    ‘कइसे भोला?’ मैं बोला-‘ए मेर कइसे खड़े हस?’
    ‘द्वारी जाए बर कउनो सवारी के बाट जोहथ हवं मालिक।’ उसने मुस्कुराने की कोशिश की।
    ‘ओह! लेकिन कइसे आए रहे हियां?’
    ‘ऊ नेता आए रहिन न.....।’ उसने बिना किसी लाग-लपेट के जवाब दिया।
    ‘नेता...? अच्छा ऊ..., ऊ... जऊन चुनाव लड़थ हे।’
    ‘हव।’ भोला बोला-‘तेकरे सइती आए रहवं।’
    ‘हूं।’ फटफटिया को स्टैंड पर खड़ी कर उसकी सीट पर बैठते हुए मैं बोला-‘लेकिन नेता से मिले के तोला का जरूरत पड़ गे?’
    ‘जरूरत तो कउनो नई रहिस...।’
    ‘फेर...?’
    ‘मैं तो संपत के कहे म आए रहवं।’ वह सादगी से बोला-‘संपत ह कहे रहिस के नेता आत हे त शहर जाए ल पड़ही, तेकरे सइती आए रहवं।’
    ‘संपत कउन?’ जेब से सिगरेट का पैकेट निकालते हुए मैंने पूछा।
    ‘संपत एइ नेता के कारकरता हस हमर गांव म।’ भोला बोला-‘ओ कहे रहे के नेता आथे त थोड़ अकन भीड़ जुटाए ल पड़थे। त हमर गांव के 15.20 झन अउ आन गांव के 15.20  झन जुड़ के हमन 40.50  झन आए रहिन। संपत ह सबो ल टरक म बैठाए दे रहे अउ कहे रहे कि इही टरक ह वापस घलो पंहोचा देही।’
    ‘तो ऊ टरक ह अब कहां हे?’
    ‘ओकर डीजल ह सिरा गे हे मालिक।’ भोला बोला-‘डिरावर बतात रहे के टरक अब नइ जाए सकए।’
    ‘ओह! अउ तुंहर संगवारी?’
    ‘कउन जाने मालिक, भीड़ म कहां पछुआ गे हे सब्बो मन।’
    ‘त खाना-वाना खाए हस के नहीं?’ मैंने एक सिगरेट सुलगाते हुए पूछा।
    ‘या।’ खीसें निपोरकर वह बोला-‘जब संपत ही नइ मिले त खाना कहां ले मिलही बाबू।’
    मैंने सिगरेट का एक लंबा कश लिया और भोला को अपने साथ लेकर पास की एक होटल में जा बैठा। वहां उसके लिए समोसा आर्डर कर मैंने पूछा-‘का कहत रहे नेता?’
    तभी वेटर समोसा ले आया। भोला जल्दी-जल्दी समोसा ढकोसने लगा। उसे देखकर ऐसा लग रहा था, जैसे उसने सुबह से कुछ नहीं खाया है। दो समोसा खाने तक उसके माथे और आंखों में पानी की बूंदे चमकने लगी थी। उसने पानी से भरा पूरा गिलास भी गटक लिया। तभी मेरे इशारे पर वेटर समोसे की एक और प्लेट रख गया। प्लेट से एक समोसा उठाते हुए भोला ने मुझसे पूछा-‘तयं नई खाबे?’
    ‘मैं अभ्भिच भोजन करे हवं।’ मैं बोला।
    भोला चुपचाप समोसा खाता रहा। थोड़ी देर बाद वह बोला-‘नेता कहत रहे के अब के बरस हमर गांव म घलो स्कूल खुल जाही...।’ कहकर उसने समोसे में मुंह मारा। यह बताते हुए उसकी आंखों में आशा की जोत झिलमिला रही थी।
    ‘अउ?’ मैंने पूछा-‘अउ का कहत रहे?’
    ‘कउन जाने मालिक।’ समोसा खाते हुए वह बोला-‘एतेक भीड़ रहिस के कुछ सुनात नइ रहय। मैं बस एतकेच सुन पाए हवं के अब के बरस हमर गांव म घलो स्कूल खुल जाही।’
    ‘अच्छा, ए तो बता भोला।’ मैंने अचानक विषय बदलकर पूछा-‘अब अगर कउनो नेता आही अउ संपत तोला शहर आए ल कही त आबे तंय?’
    ‘काबर नइ आहूं बाबू।’ वह हाथ धोते हुए बोला-‘नई आहूं त संपत मोर खेत के नहर ल बंद नइ करा देही का।’
    अभी मैं कुछ कहने ही जा रहा था कि तभी सायरन बजाता हुआ कारों का एक काफिला वहां से गुजरा। इसके साथ ही थोड़ी देर के लिए सब कुछ जैसे थम सा गया। थोड़ी देर बाद जब काफिला गुजर गया तो पीछे छोड़ गया धूल का गुबार। मैंने जेब से रुमाल निकालकर जल्दी से उसे अपनी नाक पर रख लिया जबकि भोलाराम उड़ती धूल के बीच मजे से चाय की चुस्कियां ले रहा था।


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