वाया लोकतंत्र

व्यंग्य


कुत्तों से सावधान

सईद खान 

वाया लोकतंत्र

    उस बड़े बंगले के लोहे वाले गेट पर एक ओर बंगले के मालिक की नाम पट्टिका लगी हुई थी और दूसरी ओर नाम पट्टिका से कुछ बड़ी एक और तख्ती लगी हुई थी जिस पर मोटे-मोटे अक्षरों से लिखा हुआ था -‘कुत्तों से सावधान।’ एक दिन किसी सिरफिरे ने उस तख्ती पर लिखे वाक्य के साथ कलाकारी कर दिया। तख्ती में लिखे ‘कुत्तों’ शब्द के आगे उसने ‘अर्ध विराम’ लगा दिया और अक्षर ‘से’ को हटा दिया। यानि ‘कुत्तों से सावधान’ वाली तख्ती की प्रकृति ही बदल गई। अब वहां हो गया ‘कुत्तों, सावधान।’
    उसी रात उस बंगले में चोरी हो गई। चोर ने लंबा हाथ मारा था लेकिन बदकिस्मती से अगले ही रोज वह पकड़ लिया गया। हमने सोचा, उत्ते बड़े बंगले में और वह भी उस बंगले में, जिसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी कुत्तों के हवाले थी, बाकायदा वार्निंग देकर चोरी करने वाला चोर कोई ऐसा-वैसा नहीं होगा। वह जरूर कोई पहुंचा हुआ होगा। और हो सकता है, उसने कहीं से (दूसरे मुलुक) से प्रशिक्षण भी लिया हो, क्योंकि जहां तक हमारा नालेज बताता है कि अपने मुलुक में अब तक ऐसा कोई प्रशिक्षण केंद्र स्थापित ही नहीं हुआ है, जहां युवकों को बलवा, तोड़फोड़ और चोरी-डकैती जैसी बहुपयोगी विधाओं का प्रशिक्षण दिया जाता हो। यहां तो जो होता है (उपरोक्त) उस सब में बाहर का ही हाथ होता है। लेहाजा हमने उस इम्पोर्टेड चोर का इंटरव्यूह लेने की ठानी। हमने सोचा, पत्रकारों के बीच अच्छी धाक जम जाएगी अपनी। सो हम थाने जा पहुंचे। लेकिन थाने पहुंचने पर निराशा हाथ लगी, क्योंकि जिसे हम आयातीत चोर समझ रहे थे, वह गली-मोहल्ले का चोर निकला।

  Read More  

कहानी 

  घर 

व्यंग्य

    

    हम बोले- ‘का भैया, तुम्हें डर नहीं लगा। उत्ते बड़े बंगले में चोरी करते हुए। वह भी उस बंगले में, जिसमें कुत्ते पले हुए थे।’
    ‘नहीं थे यार कुत्ते-सुत्ते।’ वह खीजकर बोला-‘बंगले वाला ही कुत्ता निकला। खाली-पीली तख्ती लगा रखी थी साले ने, ताकि हमारी बिरादरी बंगले में घुसने की हिम्मत न कर सके। साला, राजनीति कर रहा था हमारे साथ।’
    अल्लाह कसम भाई मियां। उस दिन हमने पहली बार जाना कि राजनीति क्या होती है। पहले हम राजनीति को सिर्फ राजनीति समझा करते थे। उस दिना जाना कि राजनीति वह नहीं होती है, जो हम समझा करते हैं। बल्कि वह तो कुछ और ही होती है।
    कुछ दिनों बाद वह चोर हमें नुक्कड़ के चाय के ठेले पर एक पुलिस वाले के साथ चाय सुड़कता मिला। हम बोले-‘का भैया, इत्ती जल्दी कैसे बाहर आ गए? तुमाय पर तो चारी का इल्जाम है न?’
    ‘तो क्या हुआ?’ वह दो टूक लहजे में बोला-‘चोरी का इल्जाम तो दर्जनों है हम पर। और चोरी का ही क्यों, हत्या, लूट और बलात्कार के न जाने कितने इल्जाम हैं हम पर। लेकिन इसका ये मतलब तो नहीं कि हर इल्जाम की सजा हमें मिले ही?’
    ‘मतलब?’ हमने चैंककर पूछा तो वह बोला-‘सेटिंग है यार। सब तरफ सेटिंग करके रखना पड़ता है। इसलिए तो इत्ते दिनों से इस पोरफेशन में हैं।’
    ‘सेटिंग बोले तो?’ हमने अपनी पलकें मिचमिचाकर पूछा।
    ‘समझ लो राजनीति है।’ चाय का एक लंबा घूंट सुड़क कर वह बोला-‘तुम्हारी समझ में नहीं आएगी।’  कहकर वह पुलिस वाले के साथ उसकी फटफटिया में जा बैठा और हमारे देखते ही देखते उड़न छू हो गया।
    कुछ दिनों बाद वह फिर मिला हमें। उस वक्त हम अपना पारंपरिक लिबास पहनें पईयां-पईयां सड़क नाप रहे थे। ढीला-ढाला कुर्ता-पायजामा, पैरों में घिसी हुई स्लिपर और आंखों में चौड़े फे्रम वाला चश्मा था। तभी एक चमचमाती कार हमारे बिल्कुल निकट आकर रुकी। हमने देखा, उसकी स्टेयरिंग पर वही चोर बैठा हमें देखकर मंद-मंद मुस्कुरा रहा है। हम भौंचक्क हो कभी उसकी कार को और कभी उसे देख रहे थे। आश्चर्य से भाड़ की तरह खुले हमारे मुंह का पूरा-पूरा आनंद लेते हुए वह बोला- ‘शक मत करो। चोरी की नहीं है। नगद रोकड़ा देकर खरीदा हूं। वो क्या है कि आजकल मैं सरकारी ठेके लेने लगा हूं।’
    ‘सरकारी ठेका।’ हम चकरा ही गए। हमने सोचा, हम सरकारी जमीन पर एक पान ठेला रखने की हिमाकत भी नहीं कर सके आज तक। और एक यह है। कल का चोर। टोटल असामाजिक। यह सरकारी ठेकेदार हो गया और इत्ती जल्दी कार वाला भी हो गया। लानत है हम पर। हम अपनी सैकड़ाभर रचनाओं के प्रकाशन के बाद भी कार तो क्या लूना वाले भी न हो सके। और यह कार वाला हो गया। अच्छी राजनीति है भई।
    थोड़े दिनों बाद हमें एक और सुखद अनुभूति हुई।
    पता चला कि हमारा फेवरिट चोर चुनाव लड़ रहा है। एक मजबूत पार्टी ने उसे अपना उम्मीदवार घोषित किया है। उसके मुकाबले एक निहायत ही सज्जन पुरुष मैदान में थे। कांटे की टक्कर थी। एक तरफ चोर था। गुंडा और बदनामशुदा सरकारी ठेकेदर। जबकि दूसरी ओर एक सभ्य, शिक्षित और देवतातुल्य सज्जन थे।
    हमने सोचा, नैतिकता अभी मरी नहीं है। समाज अभी भी सभ्य है, शिष्ट है। नैतिकता का पतन नहीं हुआ है अभी। इसलिए अच्छाई की जीत होगी और बुराई की हार होगी।
    लेकिन चुनाव परिणाम चैंकाने वाला था। अच्छाई हार गई और बुराई जीत गई। ‘सत्यमेव जयते’ को हमने राजनीति के मैदान में चारो खाने चित्त देखा। कल का चोर नेता बन गया। जिन पुलिस वालों को कल तक उसे जुतियाते देखा था, उन्हें ही उसकी आगवानी में हाथ बांधे खडे देखा। राजनीति है भई।
    राजनीति के रंग-ढंग देखकर एक बार हमारे भीतर भी कहीं राजनीति का कीड़ा कुलबुलाने लगा था। सोचा, कागज काले करने से अच्छा है कि दूसरों पर कीचड़... सारी राजनीति की जाए। सात पुश्तें तर जाएंगी। राह भी आसान है। न कोई डिग्री न डिप्लोमा। बस नैतिकता और मानवता जैसे ढकोसलों को ताक पर धरना होगा और चमचागिरी, गुंडागर्दी जैसे गुणों का विकास करना होगा। अथवा न्यूली डेव्हलप्ड शार्टकट का उपयोग करना होगा। बंदूक लेकर बीहड़ में कूदने भर की देर है। बीहड़ की उबड-खाबड़ पथरीली राह वाया लोकतंत्र संसद के साफ-सुथरे गलियारे तक भी जाती है। 


Post a Comment

0 Comments