जी काअदा, 1446 हिजरी
﷽
फरमाने रसूल ﷺ
"वो शख्स जन्नत में दाखिल नही होगा, जिसकी शरारतों से उसका हमसाया (पड़ोसी) बे ख़ौफ़ नही रहता।"
- मुस्लिम
4 4 मई, यौमे शहादत पर खास
4 मई का दिन बर्रे सग़ीर की तारीख़ में एक अज़ीम, गैरतमंद और बेमिसाल सिपाही-ओ-हुक्मरान की याद दिलाता है। ये दिन उस बहादुर, इंसाफ़ पसंद और उसूल परस्त बादशाह की शहादत का है, जिसे दुनिया शेर-ए-मैसूर टीपू सुल्तान के नाम से जानती है।
ये वो बादशाह हैं जिसने अंग्रेज़ों की गु़लामी क़बूल करने की बजाय शहादत को तर्जीह दी। वो हुक्मरां थे, मगर ग़ैरत-ओ-हमीयत उनके लहू में थी। आज जब उनका यौम शहादत आता है, तो मुल्क की फ़िज़ा में अदल-ओ-इन्साफ़ की कमी, बदअमनी और गिरते अख़लाक़ी इक़दार उसकी ग़ैरतभरी क़ियादत को मज़ीद यादगार बना देते हैं। हमें ये सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि कहीं हमने ऐसे किरदारों को सिर्फ तारीख़ की किताबों तक महदूद तो नहीं कर दिया है।
टीपू सुलतान किसी मख़सूस फ़िरक़े, क़ौम या ज़ात को तर्जीह नहीं देते थे बल्कि उनका पैग़ाम पूरे भारत के लिए था। उन्होंने अपनी हुक्मरानी में अदल-ओ-इन्साफ़ को बुनियाद बनाया। उनके दौर-ए-हुकूमत में हर मज़हब, हर ज़ात, हर फ़र्द को यकसाँ हुक़ूक़ हासिल थे। वो सिर्फ़ तलवार के शहसवार ना थे, बल्कि उनकी रियासत में फ़लाही कामों का भी सिलसिला था, तमाम कामों की फ़रावानी थी और चारों सिम्त उनका बोल-बाला था।
टीपू सुलतान ने ख़वातीन के हुक़ूक़ के तहफ़्फ़ुज़ के लिए जो इक़दामात किए, वो ना सिर्फ अपने वक़्त के लिए इन्क़िलाबी थे, बल्कि आज के दौर में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसे नारों का अमली नमूना कहे जा सकते हैं। इस अह्द में औरत को कमतर, हक़ीर और महज एक जिन्सी शै समझा जाता था। खासतौर पर निचली ज़ात की औरतें दलित, शूद्र और दीगर पसमांदा तबक़ात से ताल्लुक़ रखने वाली ख़वातीन, जिन्हें ना इज़्ज़त-ए-नफ़स का हक़ हासिल था और ना ही तन ढांपने की आज़ादी। मुआशरे का जब्र इस क़दर संगीन था कि इन औरतों पर जिस्म ढकने पर जुर्माने और तशद्दुद किया जाता। ऐसी ही एक ख़ातून थी नंगेली, जिसका ताल्लुक़ केराला के इलाक़े से था। जब उस पर नंगे जिस्म रखने के टैक्स का तक़ाज़ा किया गया तो उसने अपनी छाती काट कर उसे टैक्स के तौर पर पेश कर दिया था। ये एहतिजाज सिर्फ उसका ज़ाती रद्द-ए-अमल ना था बल्कि एक अह्द के ख़िलाफ़ ख़ामोश इन्क़िलाब था।
ऐसे ही पस-ए-मंज़र में टीपू सुलतान का ये ऐलान कि हर औरत को पर्दे और हया का हक़ हासिल है, ख़ाह वो किसी भी ज़ात, मज़हब या तबक़े से ताल्लुक़ रखती हो, एक अदालती इन्क़िलाब से कम ना था। उनके इस फ़रमान के बाद रियासत-ए-मैसूर में निचली ज़ात की ख़वातीन को वो समाजी तहफ़्फ़ुज़ मिला जिससे वो पहली बार ख़ुद को इन्सान समझने लगें। टीपू सुलतान ने औरतों के लिए तालीमी मवाक़े, विरासत के हुक़ूक़ और मुआशरती वक़ार को क़ानूनी शक्ल दी जो इस दौर में किसी हिंदू या मुस्लमान हुकमरान के यहां आम ना था।
ये हक़ीक़त है कि उनके दौर में औरत को बापरदा ज़िंदगी, तालीम, और जायदाद में हिस्सा जैसी नेअमतें मिलीं, जो सदियों तक फ़क़त ऊंची ज़ात की ख़वातीन को दस्तयाब थीं। उन्होंने रियास्ती सतह पर उस निज़ाम को चैलेंज किया जो औरत के बदन को भी टैक्स के काबिल समझता था, और औरत के हिजाब को ना सिर्फ मज़हबी बल्कि इन्सानी हक़ क़रार दिया। आज जब हम ख़वातीन के हुक़ूक़ के हवाले से क़ानूनसाज़ी की बात करते हैं, तो टीपू सुलतान जैसे इन्क़िलाबी हुक्मरां की मसाल हमें ये सबक़ देती है कि एक रियासत तभी इन्साफ़ पर क़ायम हो सकती है जब उसमें हर इन्सान, ख़ुसूसन हर औरत, को उसका बुनियादी हक़ हासिल हो।
उन्होंने तालीम को आम करने और बच्चियों की तालीम पर ज़ोर दिया। उनका मानना था कि किसी क़ौम की तरक़्क़ी उसकी औरतों की तालीम से मशरूत है। उन्होंने मदारिस, लाइब्रेरियां और तर्बीयती इदारे क़ायम किए जहां ख़वातीन भी ज़ेवर-ए-इलम से आरास्ता हो सकें।
टीपू सुलतान की सबसे ख़ूबसूरत पहचान उनका बैन उल मज़ाहिब इत्तिहाद था। उनका वज़ीर-ए-आज़म पण्डित पूर्णिया एक हिंदू था, जो उनके क़रीब तरीन मुशीरों में शामिल था हालाँकि बाद में उसने ग़द्दारी की। उन्होंने पूरा इख़तियार दे रखा था कि वो रियास्ती उमूर में फ़ैसले कर सके। ये उस दौर की मिसाल है, जब मज़हब, ज़ात, या अक़ीदे की बुनियाद पर तफ़रीक़ ना की जाती थी, बल्कि सलाहीयत को मयार बनाया जाता था।
आज जब हमारा मुआशरा फ़िर्कावारीयत, ज़ात पात और मज़हबी ताअस्सुब का शिकार है, हमें टीपू सुलतान की तालीमात और तर्ज़-ए-हुक्मरानी की तरफ़ लौटने की ज़रूरत है। उनकी ज़िंदगी हमें सिखाती है कि असल ताक़त तलवार में नहीं, इन्साफ़ में है।
टीपू सुलतान ने अंग्रेज़ों की गु़लामी क़बूल नहीं की, बल्कि अपनी जान दे दी, मगर कभी सर नहीं झुकाया। उनका वो मशहूर क़ौल आज भी हमारे दिलों में गूँजता है :
शेर की एक दिन की ज़िंदगी, गीदड़ की सौ साला ज़िंदगी से बेहतर है।
आज मुल्क में हालात अफ़सोसनाक हैं। मज़हब और शिनाख़्त की बुनियाद पर इन्सानों के दरमयान तफ़रीक़ बढ़ती जा रही है। कहीं नाम पूछ कर मार दिया जाता है, कहीं मस्जिद में इबादत करने वालों को निशाना बनाया जाता है, और कहीं गाय के नाम पर बे-गुनाहों को सर-ए-बाज़ार पीट-पीट कर मार दिया जाता है, इन्सान का नाम ही ज़िंदगी और मौत के फ़ैसले का पैमाना बन चुका है। तालीमी इदारों, शहरों, और सड़कों के नाम तक बदले जा रहे हैं ताकि तारीख़ का चेहरा मसख़ कर सिर्फ एक मख़सूस नज़रिए को ग़ालिब कर दिया जाए। और ये नाम महज इस बुनियाद पर बदले जा रहे हैं कि वो किसी ख़ास मज़हब या शख़्सियत से मंसूब हैं। ये हालात ना सिर्फ जमहूरी इक़दार के मुनाफ़ी हैं बल्कि इन्सानियत के बुनियादी उसूलों से भी टकराते हैं। ये वो दौर है, जहां तास्सुब ने इन्साफ़ को दबा दिया है, और नफ़रत ने भाईचारे की जगह ले ली है।
ऐसे माहौल में टीपू सुलतान का अदल-ओ-इन्साफ़ और मज़हबी हम-आहंगी पर मबनी तर्ज़-ए-हुकूमत एक रोशन मिसाल बन कर सामने आता है। उन्होंने कभी किसी की शिनाख़्त, मज़हब या ज़ात को उसकी इज़्ज़त या इन्साफ़ से महरूम करने का ज़रीया नहीं बनाया।
दरे अस्ना औरंगज़ेब रहमतुल्लाह अलैह के ख़िलाफ़ जो ज़हर उगला गया और उनकी क़ब्र पर सियासत की गई, वो ना सिर्फ तारीख़ से जहालत का सबूत है बल्कि समाज में नफ़रत के बढ़ते ज़हर का भी पता देती है। एक बाशऊर क़ौम अपने माज़ी को हमेशा याद रखती है, बल्कि इससे सबक़ सीख कर हाल को बेहतर बनाती है। लेकिन आज हमारे बुज़ुर्गों की तौहीन की जा रही है बल्कि फ़िर्कापरस्ती को हथियार बना कर समाज को बांटने की कोशीश की जा रही है। टीपू सुलतान और औरंगज़ेब जैसे किरदार हमें याद दिलाते हैं कि असल क़ियादत वही होती है, जो दीन, अदल और ग़ैरत पर मबनी हो और यही पैग़ाम आज हमें सबसे ज़्यादा दरकार है।
शहीद टीपू सुलतान एक ऐसे बादशाह हैं, जो मुल्क की हिफ़ाज़त करते हुए मैदान-ए-जंग में शहीद हुए। 4 मई, यौम शहादत टीपू सुलतान सिर्फ एक तारीख़ी दिन नहीं, बल्कि ये तारीख हमें याद दिलाती है कि हमें भी इन्साफ़, बराबरी, ख़वातीन के हुक़ूक़, तालीम और क़ौमी इत्तिहाद के लिए आवाज़ बुलंद करनी है। एससी, एसटी और दलितों को इन्साफ़ दिलाने के लिए पुरज़ोर आवाज़ बुलंद करना होगी, जो मनुवादी, पूंजीवादी अनासिर बदनाम करने में लगे हुए हैं, उन्हें हर जगह से उखाड़ फेंकना है, यही इस दिन का पैग़ाम है। टीपू सुलतान आज भी ज़िंदा हैं। हमारी सोच में, हमारे उसूलों में और हर उस इन्सान में जो जुल्म के ख़िलाफ़ खड़ा होता है।
MW Ansari, IPS (Rtd)
Bhopal
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