मोहर्रम उल हराम, 1447 हिजरी
﷽
फरमाने रसूल ﷺ
"रसुल अल्लाह ﷺ ने एक शख्स को सूरह अखलास पढ़ते हुए सुना तो फरमाया, इसके लिए जन्नत वाजिब हो गई।"
- जमाह तिर्मिज़ी
हज के मनासिक से फारिग होकर बेशतर हुज्जाज रूहानियत के एक गहरे सफ़र पर गामज़न हो गए और सऊदी अरब में बिखरी इस्लाम के तारीख़ी मुक़ामात का रूहानी सफर किया।
मक्का मुकर्रमा में हुज्जाज कराम ने जबल-ए-नूर का रूख किया। नूर का पहाड़ नामी इस पहाड़ की चोटी पर ग़ार-ए-हिरा वाके है, जहां हज़रत जिब्राईल पहली वही लेकर आए थे। ऊंट के कोहान जैसी शक्ल जबले नूर के क़रीब ही हिरा कल्चरल डिस्ट्रिक्ट की 'रेवीलेशन गैलरी है, जहां हुज्जाज को अपनी मालूमात में इज़ाफे़ के लिए इस्लामी तारीख़ के औराक़ पलटने का बेहतरीन मौका मिलता है।

हुज्जाज कहते हैं 'जहां से ये सब कुछ शुरू हुआ, वहां खड़े हो कर ऐसा लगता है कि अभी कुछ और जानना बाक़ी है। यहां पहुंचने पर बहुत से लोगों की आँखों में आँसू होते हैं। ये सिर्फ एक चढ़ाई नहीं है, ये रुहानी बेदारी है।
जबले नूर के जुनूब में, जबल-ए-सौर है। ये वो पहाड़ है जो पैग़ंबर-ए-इस्लाम 000 और उनके सहाबी हज़रत अबूबकर सिद्दीक़ के लिए उस वक़्त ना दिखाई देने वाला गहोरा बन गया था, जब वो मदीने को हिज्रत कर रहे थे।
ये मुक़द्दस कहानी अब भी हुज्जाज को बहुत अच्छी तरह उस वाक़े की याद दिलाती है, जब मकड़ी ने ग़ार के दहाने पर जाला बुन दिया था और कुमरी ने घोंसला बना दिया था ताकि ख़ुदा के पैग़ंबर और उनके साथी को कोई देख ना सके।

एक और मुक़ाम जहां हुज्जाज अक्सर जाते हैं, वो जबल-ए-अबूओक़ुबीस है, जिसके बारे में रिवायत है कि इस पहाड़ को पहली बार ज़मीन की गोद में रखा गया। ये पहाड़, मस्जिद उल-हराम से क़रीब है और पैग़ंबर-ए-इस्लाम 000 की तरफ़ से दीन की इबतिदाई दावत और भारी रुहानी ज़िम्मेदारी की याद दिलाता है। पास में, नमूद नुमाइश से बेनयाज़ मगर तारीख़ी लिहाज़ से अहम, मस्जिद अलाकबा है, जहां अंसार-ए-मदीना ने पैगंबर-ए-इस्लाम 000 के दस्त-ए-मुबारक पर बैअत की थी।
अब्बासी दौर में तामीर होने वाली ये मस्जिद, मुस्लमानों के दीन पर कारबन्द रहने के अह्द और इबतिदाई इस्लामी उखूवत-ओ-इत्तिहाद की अलामत है।
इस मुक़ाम से थोड़े ही फ़ासले पर अलहजून का ज़िला है, जहां जबल-ए-सय्यदा वाके है। इस पहाड़ की बुनियाद के नज़दीक मुकब्बिर-ए-अलमाला है, जो पैग़ंबर-ए-इस्लाम 000 की इंतिहाई अज़ीज़ अहलिया अमीर उल मोमेनीन हज़रत ख़दीजा की आख़िरी आरामगाह है और जो आज भी बेहद एहतिराम का मर्कज़ है। हुज्जाज उन मुक़ामात की जियारत को जाना ज्यादा पसंद करते हैं जहां ऐसे अफ़राद की क़ुर्बानीयों को समझने में मदद मिलती है, जिन्होंने इस्लाम की तशकील साज़ी की।
मदीने की अपनी ही एक लाज़वाल विरासत है। यहां मस्जिद-ए-किब्लातैन है जहां नमाज़ के दौरान पैग़ंबर-ए-इस्लाम पर वही नाज़िल हुई जिसके बाद आप 999 ने यरूशलम के बजाय अपना रूख मक्का की जानिब मोड़ लिया। इस लम्हे ने मुस्लमानों की अलहदा शिनाख़्त क़ायम करने में एक इंतिहाई अहम तबदीली की बुनियाद डाल दी।
मस्जिद-ए-नबवी से जानिब-ए-मग़रिब, सात मसाजिद हैं। उनमें हर मस्जिद किसी ना किसी तरह जंग ख़ंदक़ के किसी वाक़े से जुड़ी हुई है। इन मसाजिद में अलिफ़ता मस्जिद के अलावा दीगर मसाजिद किसी शख़्सियत के नाम पर है। मसलन यहां की तीन मसाजिद के नाम मस्जिद-ए-फ़ातिमा, मस्जिद-ए-अली इब्न-ए-अबी तालिब और मस्जिद-ए-सलमान फ़ारसी हैं। ये मसाजिद, इस्लाम की तारीख़ से भरी पड़ी हैं और इस्लाम की अहम तरीन जंगी मुहिम्मात के दौरान जो मुश्किलात दरपेश हुईं, उनकी यादगार भी हैं।
अहद का पहाड़, मदीना से शुमाल की जानिब है और इसकी ढलान जंग अहद और इस मुक़ाम की याद दिलाती है जहां पैग़ंबर-ए-इस्लाम के चचा हज़रत हमज़ा इब्न-ए-अबदुल मुतलिब और लश्कर के 70 जान-निसार शहीद हुए थे। आज जब हुज्जाज इस क़ब्रिस्तान के पास से गुज़रते हैं तो उन शहीदों के एहतिराम में चंद लम्हों के लिए ख़ामोश हो जाते हैं।
एक अरसा बीत चुका है लेकिन मस्जिद-ए-नबवी के क़रीब वाके उस क़ब्रिस्तान के पास आ कर हुज्जाज आज भी दुआ करते हैं और इस्लाम के अहद-ए-रफ़्ता को याद करते हैं। इस मुक़ाम पर हुज्जाज को इन शख़्सियात से एक राबिता सा महसूस होता है जो इस्लाम के इबतिदाई बरसों में बानी-ए-इस्लाम के साथ खड़े रहे।
मुक़ामात-ए-मुक़द्दसा के अलावा भी दीगर ऐसी कई जगहें हैं जो रूहानियत में बेशक़ीमत इज़ाफ़ा करने के लिए उन्हें अपनी तरफ़ मुतवज्जा करती हैं। उनमें मदीना के शुमाल मग़रिब की तरफ़ वाके मुक़ाम ख़ैबर है जहां इस्लाम के ख़िलाफ़ एक मर्कज़ी फ़ौजी मुहिम का आग़ाज़ हुआ था। यहीं पैग़ंबर-ए-इस्लाम 000 की क़ियादत के अख़लाक़ी और जंगी हिकमत-ए-अमली के मुख़्तलिफ़ पहलू यकजा हो कर सामने आते हैं।
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