सड़क का राजनीतिक समीकरण

व्यंग्य

सड़क का राजनीतिक समीकरण (व्यंग्य)

✅ सईद खान 

    ये गांधी चौक है। चौक में चमकदार टाइल्सयुक्त गोल घेरा, घेरे के भीतर सुंदर बागीचा, बागीचे के बीच रंगीन फव्वारा और फव्वारे के बीचो-बीच राष्टÑपिता महात्मा गांधी की कांस्य निर्मित आदमकद प्रतिमा स्थापित है। शायद इसी से चौक का नाम गांधी चौक पड़ा। अथवा मुमकिन है कि चौक का नाम पहले से गांधी चौक रहा हो और किसी मंत्री-संत्री ने बापू की प्रतिमा यहां बाद में स्थापित करवाई हो। यह पुख्ता करने के लिए कि यही गांधी चौक है। अथवा बापू की स्मृति को चिरजीवि बनाए रखने के लिए ऐसा किया गया हो। अथवा बापू के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने के लिए, अथवा अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने के लिए या किसी ठेकेदार को उपकृत करने के लिए भी ऐसा किया गया हो सकता है। जो भी हो, आप तो सिर्फ आम खाओ।   

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    एक अदद गांधी चौक आपके शहर में भी होगा। गांधी चौक अमूमन हर शहर में पाया जाता है। शहर अगर बड़ा हुआ तो एक से ज्यादा चौक भी हो सकते हैं। ज्यादातर गांधी, नेहरु, पटेल और आजाद जैसी अजÞीम शख्सियतों के नाम से वाबस्ता-तो कुछ अपनी सिफत की वजह से मशहूर हो जाते हैं। जैसे जलेबी चौक, जहां किसी नेता अथवा महापुरुष की कोई प्रतिमा नहीं है। न गोल घेरा है, न बागीचा और न फव्वारा। चौक के पास जलेबी की एक बहुत पुरानी दुकान है-बस। इसी से चौक का नाम जलेबी चौक पड़ गया और तब से यह इसी नाम से जाना जा रहा है। ऐसे ही दुर्घटना चौक, जो महज इसलिए मशहूर हो गया क्योंकि आए दिन वहां दुर्घटना होती रहती है। इसी तरह किशन चौक, धरना चौक आदि-इत्यादि। 

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    मशहूर हस्तियों के नाम से वाबस्ता चौक-चौराहों पर हर साल 15 अगस्त, 26 जनवरी और जयंती-पुण्यतिथि के मौके पर जुटने वाली कुछ होशमंद लोगों की भीड़ से पता चलता है कि देशभक्ति की भावना वाले कुछ लोग अब भी बचे हुए हैं। इसी बहाने चौक के साथ-साथ प्रतिमाओं की थोड़ी झाड़-पोंछ हो जाया करती है। हालांकि उस भीड़ में कितने देशभक्ति की भावना वाले और कितने अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने की गरज वाले होते हैं, इसका निर्धारण होना अभी बाकी है। आप कृपया, चौक पर लगी प्रतिमा का चश्मा अथवा टोपी क्षतिग्रस्त होने को विपक्षी पार्टी की साजिश बताकर आसमान सिर पर उठाने वालों की भीड़ से कोई अनुमान न लगाएं।  

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    चौक का होना न सिर्फ व्यवस्थित यातायात के लिए जरूरी है बल्कि इसके होने से राजनीति करने वालों को एक ठिया भी मयस्सर हो जाता है। चौक न हो तो छुटभैय्ये नेताओं के समक्ष विकट समस्या पैदा हो जाएगी। धरना-प्रदर्शन, पुतला दहन, रैली का समापन और किसी की आत्मा की शांति के लिए वे कैंडल कहां जलाएंगे। ये सारे आयोजन चौक में ही संपन्न होते हैं और यहीं से छुटभैय्ये राजनीति का ककहरा सीखते हैं। छुटभैय्यों द्वारा तीज-त्यौहारों और अपने प्रिय नेता को उनके जन्मदिन पर बधाई देने वाली होर्डिंग्स लगाने को भी आप इसी संदर्भ से जोड़कर देख सकते हैं। इस बहाने छुटभैय्यों की फोटू महीनों चौक पर लटकी रहकर राजनीति के मैदान में लंबी कूद के लिए उन्हें ऊर्जा प्रदान करती रहती है। इन कामों के लिए छुटभैय्ये अगर चौक की शरण में न जाएं तो शहरवासियों को पता कैसे चलेगा कि उन्होंने फलां को श्रद्धांजलि अर्पित की है या फलां के विरोध में उसका पुतला फंूका है, अथवा अपने प्रिय नेता को बधाई देने के लिए उन्होंने कितनी बड़ी होर्डिंग लगाई है। इस लेहाज से चौक को आप वाया वार्ड अध्यक्ष, संसद के रेड कार्पेट तक पहुंचने का शार्टकट भी कह सकते हंै। यानि चौक है तो राजनीति है। चौक न हो तो छुटभैय्ये नेताओं को वार्ड अध्यक्ष बनने में ही सालों लग जाएं। महापौर की कुर्सी तक पहुंचना तो दूर की बात है।  

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    चौक के होने के लिए सड़क का होना जरूरी है। छुटभैय्यों के समक्ष जो अहमियत चौक की है, वही सड़क की है। सड़क, सामान्य आदमी के लिए भी खासा महत्व रखती है। आदमी चाहे हवाई जहाज में ही सवार होने के लिए घर से निकला हो, उसका पहला कदम सड़क पर ही पड़ता है। हद तो यह कि आदमी के बच्चे को पैदा होने के लिए भी अब सड़क नापनी पड़ रही है। पहले ऐसा नहीं था। पहले दाईयां घर आ जाती थी। इस लेहाज से सड़क और आदमी के रिश्ते को जन्मजात भी कहा जा सकता है। यही वजह है कि सड़क चाहे जितनी भी जर्जर हो, छोटे-बड़े सैकड़ों गड्ढों से भरी हो और दुर्घटना को आमंत्रित करने वाली हो, आदमी उसका मोह नहीं छोड़ पाता। जर्जर सड़क पर आदमी के नि:शब्द आवाजाही करने का कोई और तात्पर्य मेरी समझ में नहीं आता। 

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    आदमी वर्ग में पाए जाने वाले इंजीनियरों की सड़क बनाने में विशेष रूचि और मंत्री के सड़क निर्माण की प्रक्रिया को लेकर चौकस रहने को भी आप सड़क के साथ आदमी वर्ग के जन्मजात रिश्तों के संदर्भ से जोड़कर देख सकते हैं। आदमी के ही एक वर्ग का सड़क से इतना प्रागाढ़ नाता होता है कि उसे सड़कछाप कहकर विभूषित किया जाता है। हालांकि सभ्य समाज के समक्ष आदमी के सड़कछाप होने को बुरा समझा जाता है। लेकिन जिस तरह विरोध प्रदर्शन के दौरान धवल वस्त्रधारी नेता खुद को धूलभरी सड़क पर पालथी मारकर बैठने से नहीं रोक पाता, उसी तरह आदमी भी खुद को सड़कछाप होने से नहीं रोक पाता। दोनों की अपनी-अपनी मजबूरी है। 

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    आदमी और सड़क के परस्पर संबंध का पता सड़कों पर लगी महापुरुषों की नाम पट्टिकाओं से भी चलता है। ये सड़क ही है, जो देश के प्रति महापुरुषों के योगदान को रेखांकित करने के भी काम आती है। आगे चलकर सड़कों पर लगी ये नाम पट्टिकाएं राजनीति करने वालों को उन पर कालिख पोतने का अवसर भी प्रदान करती है। 

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    बहरहाल ! मेरे शहर में एक और गांधी चौक है। शायद आपके शहर में न हो। किसी शहर में एक ही नाम के दो चौक का होना दुर्लभ हो सकता है। लेकिन मेरे शहर में ऐसा है। कहा जाता है कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बापू यहां आए थे और यहां उन्होंने सभा भी ली थी। बाद में बापू के आगमन और उनकी सभा को यादगार बनाने के लिए हुकूमत ने उस स्थल को घेरकर वहां बापू की प्रतिमा स्थापित करवा दी थी। तब से लोग इसे गांधी चौक कहने लगे थे। कालांतर में शहर का विस्तार होने के साथ ही गोल घेरे के आसपास फुटकर व्यवसायी अपने व्यवसाय का विस्तार करते हुए गोल घेरे के चारों ओर पसर गए। यहां तक कि लोगों ने घेरे की जाली से टाट बांधने से भी गुरेज न किया। नतीजा, अब यह गांधी चौक की बजाए हटरी चौक के नाम से जाना जाता है। अब यहां विशेष अवसरों पर कोई आयोजन नहीं होता। अब यहां बजबजाती नालियां और तंग गलियां हैं जो कहीं जाकर नहीं मिलती बल्कि वहीं-वहीं घूमकर लौट आती है। जबकि उस चौक से निकली एक सड़क मंत्री के निवास तक जाती है तो दूसरी अन्य शहरों को इस शहर से जोड़ती है। छुटभैय्यों को ये वाले बापू की बजाए वो वाले बापू का आशिर्वाद ज्यादा सूट करता है। पता नहीं क्यों। जबकि दोनों ही जगह बापू आशिर्वाद की मुद्रा में खड़े हैं। 

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