कामवाली



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- व्यंग्य
- सईद खान 

    बेगम को कामवाली चाहिए। मैं बोला-‘नौ लखा ले लो।’ 
    वह बोली-‘नहीं, कामवाली।’
    ‘कार, बंगला...।’ मैनें उसके स्त्रीत्व लोभ को कुरेदा।
    ‘नो, सिर्फ कामवाली।’
    ‘कहो तो वैसी साड़ी ला दूं, जैसी नए साल में पड़ोसन पहनी थी।’ मैंने पड़ोसन फंडा आजमाया।
    वह बोली-‘पहले कामवाली।’ वह तटस्थ थी। 
    अगर वह इनमें से किसी एक पर या सभी पर भी राजी हो जाती तो मैं फौरन प्रामिस कर लेता। लेकिन कोई चारा काम न आया। कार, बंगला और नौलखा का प्रलोभन भी नहीं चला। पड़ोसन का फंडा भी फुस्स हो गया।
     मैं आफिस पहुंचा। कामवाली दिमाग में हाथौड़े की तरह बार-बार प्रहार कर रही थी। मेरी परेशानी सुखचैन से छुपी न रह सकी। आखिर उसने पूछ ही लिया-‘क्या बात है बड़े बाबू, आज कुछ परेशान लग रहे हो?’
    ‘हां यार!’ मैं उसके हाथ से फाईल लेते हुए बोला-‘कामवाली नहीं मिल रही है।’
    ‘अरे!’ वह एकदम से चौंककर बोला-‘भाग गई? कब भागी?’ और मेरे कुछ बोलने से पहले ही वह कहता चला गया-‘कामवालियों का कोई भरोसा नहीं बड़े बाबू कि कब भाग जाए।’ थोड़े दिन तो ठीक-ठाक रहती है लेकिन मौका मिलते ही मालमत्ता लेकर चंपत हो जाती है। कभी-कभी तो यह भी सुनाई दे जाता है कि कामवाली अगर थोड़ा ठीक-ठाक हुई तो घर के लड़के ही उसे लेकर नौ-दो ग्यारह हो जाते हैं। वैसे...।’ थोड़ा रुककर वह बोला-‘आपका बेटा तो अभी छोटा है न...।’
    मैंने आंखे तरेरकर उसकी ओर देखा तो वह संभलकर बोला-‘नई, मैं तो यूं ही कह रहा था। वैसे... ज्यादा मालमत्ता लेकर तो नहीं भागी न बड़े बाबू? रपट-वपट लिखवाए या नहीं?’
    ‘नहीं।’ 
    ‘अरे! क्यों?’ं वह बोला-‘सबसे पहले तो रपट ही लिखवानी थी बड़े बाबू। ऐसे मामलों में लापरवाही ठीक नहीं होती। ऐसा कीजिए, अभीच चलिए। मैं भी चलता हूं।’
    ‘यार...।’ मैंने कुछ कहना चाहा।
    लेकिन मेरी बात काटकर वह धाराप्रवाह बोलता रहा-‘नई, अगर मालमत्ता जाने की रपट नहीं लिखवाना है तो मत लिखवाइये। लेकिन कामवाली के भागने की रपट तो जरूर लिखवाइये बड़े बाबू। शर्मा जी ने भी ऐसइच किया था।’ 
    ‘शर्मा जी ने...?’
    ‘हां बड़े बाबू।’ वह तनिक झुककर बोला-‘शर्मा जी की कामवाली तो काफी मालमत्ता लेकर भागी थी। लेकिन उन्होंने रपट लिखवाई सिर्फ कामवाली के भागने की। मुझसे कह रहे थे, यार! अगर मैं यह लिखवाता कि कामवाली मालमत्ता लेकर भागी है तो मेरी इंक्वारी हो जाती। मालमत्ते का क्या है। हाथ का मैल है। चला गया तो चला गया। फिर आ जाएगा।’
    ‘अच्छा।’ 
    ‘और क्या बड़े बाबू। आखिर आप भी तो उसी विभाग में हैं। मालमत्ते का क्या है। हाथ का मैल है। चला गया तो चला गया। फिर आ जाएगा। आ ही जाएगा। क्यों। वैसे.. गया कितना है?’ ढंग ऐसा था, जैसे सुखचैन के भेष में सामने जेम्स बांड खड़ा है।
    मैं बोला-‘एक भी नहीं।’
    ‘अंय।’ वह एकदम से सीधा हो गया। फिर बोला-‘चलो अच्छा हुआ। अच्छा हुआ कि खाली हाथ भागी। मालमत्ता लेकर भागती तो मुश्किल हो जाती।’
    ‘यार।’ मैं तनिक झल्लाकर बोला-‘तुम मेरी भी कुछ सुनोगे।’ 
    ‘हां-हां। बोलिए न बड़े बाबू।’ 
    ‘मेरी कामवाली नहीं भागी है।’
    ‘अंय। लेकिन अभी तो आप कह रहे थे...।’
    ‘मैंने कहा था, नहीं मिल रही है।’
    ‘तो मतलब तो वोइच हुआ न बड़े बाबू। भागी है तब तो नहीं मिल रही है।’
    ‘नहीं।’ मैं बोला -‘थी ही नहीं। होती तो भागती न?’
    ‘अरे! तो ऐसा बोलते न बड़े बाबू।’ वह बोला-‘आप बोले, नहीं मिल रही है तो मैंने समझा भाग गई है तो नहीं मिल रही है।’
    ‘अच्छा, सुनो।’ उसकी बकवास से तंग आकर मैं बोला-‘तुम्हारी नजर में है कोई?’
    ‘कई हैं।’ वह एक झटके से बोला-‘कहिए तो एकाध सेट कर दूं।’
    ‘सेट कर दूं मतलब?’ मैंने तनिक चैंककर कर पूछा।
    वह बोला-‘सेट कर दूं मतलब। सेट कर दूं, और क्या? पता तो चले कि आपको कामवाली चाहिए किसलिए? घर के लिए, पर्सनल यूज के लिए या बास के लिए?’
    ‘मुझे घर के लिए चाहिए।’ मैं जल्दी से बोला।
    ‘घर के लिए...।’ वह एक पल कुछ सोचकर बोला-‘तो फिर घर टाइप देखनी पड़ेगी। यानि थोड़ी मेहनत करनी पड़ेगी। लेकिन मिल जाएगी। ऐसा कीजिए, आज आफिस के बाद आप मेरे साथ ही चलिए।’
    आफिस के बाद सुखचैन मुझे लेकर एक गंदी सी बस्ती में गया। वहां एक घर के सामने स्कूटर रुकवाकर ‘अभी आया’ कहते हुए वह घर के अंदर घुस गया।
    थोड़ी देर बाद एक अधेड़ उम्र की औरत के साथ वह बाहर निकला।
    वह लीला थी। वह बोली-‘मेरे पास तो टेम नहीं है। आप सावित्री से मिल लीजिए।’
    सावित्री का पता उसने सुखचैन को समझा दी थी।
    हम सावित्री के घर पहुंचे। सावित्री ने हमें कमला के पास भेज दी। कमला ने विमला के पास। विमला बोली-‘सविता को देख लो। शायद वह खाली हो। हम सविता के पास पहुंचे। वह बोली -‘मेरे पास तो पहले ही छह घर हैं।’
    हमें वहां से बैंरग लौटना पड़ा।
    घर लौटते हुए रास्ते में सुखचैन बोला-‘चिंता की बात नहीं है बड़े बाबू। कल हम फिर निकलेंगे इस अभियान पर।’
    घर लौटा तो बेगम फिर भिनक गई। एक तो देर से घर लौट रहा था। दूसरा ये कि उसे सुनाने के लिए कामवाली से संबंधित कोई शुभ समाचार भी नहीं था मेरे पास। ‘कैसे मर्द हो तुम? एक कामवाली भी नहीं ढूंढ सकते...।’ जैसा कटु वचन सुनकर भी कामवाली ढूंढने के निमित्त आज की अपनी कोशिश का ब्यौरा मैं उसे नहीं दे सका। कोई फायदा नहीं होता। उसे तो रिजल्ट चाहिए था।
    दूसरे दिन आफिस जाते हुए मैं सोच रहा था कि कुछ दिनों की छुट्टी लेकर सिर्फ एक सूत्रीय काम किया जाए। कामवाली ढूंढने का। सो आफिस पहुंच कर सबसे पहला काम जो मैंने किया, वह था, छुट्टी के लिए आवेदन लिखकर बास के सामने खड़े होने का।
    वे बोले-‘क्या बात है?’
    मैं बोला-‘सर। मुझे छुट्टी चाहिए। पूरे एक हफ्ते की। इटस एन इमरजेंसी।’
    बॉस जरा भी विचलित नहीं हुए। पूर्ववत फाइल देखते हुए बोले-‘तुम्हारी सास पिछले हफ्ते ही बाथरूम में फिसलकर गिरी थी जिससे उनकी कमर में फे्रक्चर गया था। साढू की बिटिया की शादी भी हो गई है। साले का रिश्ता तय करने के नाम पर भी तुम छुट्टी ले चुके हो। अब क्या बहाना लेकर आए हो?’
    ‘बहाना नहीं सर।’ मैं बोला-‘इस बार मेरे पास जेनुइन कारण है। मुझे कामवाली ढूंढने के लिए छुट्टी चाहिए।’
    ‘कामवाली?’ बास ने चैंक कर मेरी ओर देखा।
    मैंने कहा-‘जी सर।’
    मेरा आवेदन फौरन मंजूर हो गया। दस्तखत करते हुए बास बोले-‘यार! अगर कोई ढंग की मिले तो एकाध मेरी वाइफ के लिए भी देख लेना।’
    हफ्ते भर की छुटटी का एक-एक पल कामवाली ढूंढने में गुजर गया। लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला। इस चक्कर में वजन घटकर आधा हो गया। रंग काला पड़ गया और बाल भी काफी झड़ गए। अपने फीगर में आए इस क्रांतिकारी परिवर्तन का अहसास मुझे आफिस ज्वायन करते ही हो गया था। शीला अब घोष दादा के बगल में बैठने लगी थी।
    बीवी की प्रताड़ना का क्रम भी जारी थी। शीला का मेरे बगल से कुर्सी हटाकर घोष दादा के बगल में बैठने की हरकत से मन पहले ही कुंठा से भरा हुआ था कि एक दिन सुखचैन आया। आते ही बोला-‘बड़े बाबू। मिल गई।’
    ‘अच्छा।’ मैं फाईल के पन्ने पलटते हुए बोला-‘ऐसा करो, उसे शर्मा जी के पास ले जाओ। उनसे कहना, एक सरसरी नजर डालकर बास के केबिन में भेज दें।’
    ‘क्या?’ सुखचैन चौंककर बोला-‘क्या बोल रय हो बड़े बाबू?’
    ‘अरे यार।’ फाईल एक झटके से बंद कर मैं तनिक झल्लाकर बोला-‘मैं उसे निपटा चुका हंू। शर्मा जी देख लें तो बास का दस्तखत करवाकर वापस ले आना।’
    ‘किसकी बात कर रय हो बड़े बाबू?’
    ‘लेबर फाइल की। और किसकी।’
    ‘ओह!’ सुखचैन जरा झुककर बोला-‘लेकिन मैं तो कामवाली की बात कर रहा हंू। कामवाली की। एक नंबर की कामवाली ढूंढकर रखा हूं मैं आपके लिए।’
    ‘कामवाली?’ मैं एकदम से उछलकर खड़ा ही हो गया।
    थोड़ी देर बाद मैं सुखचैन के साथ लीला की उसी गंदी सी बस्ती में एक घर के सामने खड़ा दरवाजा खुलने का इंतजार कर रहा था। दूसरी बार दरवाजा खटखटाने पर पच्चीस-छब्बीस वर्षीय एक युवती ने दरवाजा खोला। उसे देखकर सुखचैन ने मुझसे कहा, ‘ये रामकली है। मैं इसी की बात कर रहा था। कल ही गांव से लौटी है।’
    तीखे नाक-नक्श की वह युवती कहीं से भी कमवाली नजर नहीं आ रही थी। मैं उसे ऊपर से नीचे तक देखकर सुखचैन से बोला-‘ये कामवाली है?’
    ‘और कैसी चाहिए बड़े बाबू आपको?’ मेरा आशय न समझते हुए वह बोला-‘फस्स क्लास तो है।’
    बाकी बातें मैंने रामकली से की। उसे काम की तलाश थी और मुझे कामवाली की। अंतत: डीलिंग हो गई। वह बोली-‘मैं कल से आउंगी।’
    घर लौटते हुए, रास्ते में सुखचैन मुझसे बोला-‘बड़े बाबू, आज तो आप ऐसे खुश नजर आ रहे हैं जैसे आपका डबल प्रमोशन हो गया हो।’
    ‘हां, और ये खुशी मुझे तुम्हारी वजह से मिली है।’ मैं एक होटल के सामने स्कूटर खड़ी करते हुए बोला-‘चलो, आज इसी खुशी में तुम्हे बढ़िया नाश्ता कराता हूं।’
    नाश्ता करते हुए सुखचैन बोला-‘मेरे आठ बच्चे है बड़े बाबू। बूढ़े माता-पिता भी साथ ही रहते हैं। और घर भी पुश्तैनी है। पुराने जमाने का। आज के छोटे-छोटे चार फ्लैट के बराबर। पूरे घर की देखभाल पत्नी के ही जिम्मे है। घर के अलावा बच्चों की, मेरी और माता-पिता की साज-संभाल भी वही करती है।’
    ‘अकेले?’
    ‘जी हां।’
    ‘कोई कामवाली क्यों नही रख लेते?’
    ‘कामवाली।’ सुखचैन एक रसगुल्ला उठा कर मुंह में रखते हुए बोला-‘मेरी पत्नी को पसंद नहीं कि उसके हिस्से का काम कोई और करे। घर का काम करने में उसे आनंद आता है।’
    सुखचैन ने जवाब तो सहजता से दिया था लेकिन मुझे लगा कि वह मुझे लताड़ रहा है।
    दूसरे दिन नियत समय पर रामकली घर आ गई।
    मंै उस वक्त नहा कर बाहर निकला था और अफिस के लिए तैयार हो रहा था, जब रामकली ने घंटी बजाई। दरवाजा पत्नी ने खोला। तब तक मैं भी वहां पहुंच गया था। दरवाजे पर रामकली को देखकर मैं चहका -‘ओह! रामकली। तू आ गई।’ कहकर मैंने पत्नी से रामकली का परिचय कराया। रामकली को ऊपर से नीचे तक देखते हुए बेगम की आंखे क्रमश: फैलती रही। रामकली का अच्छी तरह मुआएना करने के बाद, जब बेगम ने मेरी ओर देखा तो उसकी फैली-फैली आंखों में मैं अपने लिए प्रशंसा के भाव तलाश रहा था। लेकिन वहां प्रशंसा की बजाए शोले भड़क रहे थे। मैं समझ गया कि यह रामकली की कमसिन उमर और उसकी गठी हुई देहयष्टि का असर है। अगर मजबूरी नहीं होती तो तय था कि बेगम उसी क्षण रामकली को धक्के देकर भगा दी होती और मेरी सात पुश्तों के पुल्लिंग वर्ग को बदचलन करार दे रही होती।
    शाम को जब मैं आफिस से लौटा तो रामकली हाल में सफाई कर रही थी और बेगम किचन में मशरूफ थी। मैं सीधे अपने कमरे में चला गया और फाइल वगैरह यथास्थान रखते हुए रामकली को आवाज देकर चाय लाने के लिए कहा।
    थोड़ी देर बाद, हाथों में चाय की ट्े थामें रामकली की जगह बेगम दनदनाते हुए कमरे में नमुदार हुई और चाय की ट्े मेरे सामने पटकते हुए बोली-‘खबरदार! जो आज के बाद किसी काम के लिए तुमने रामकली को आवाज दी तो। मंै मर गई हंू क्या?’
    मुझे सहसा सुखचैन की याद हो आई। उसकी पत्नी को घर का काम करने में आनंद आता था। मेरी बेगम को यह आनंद कमसिन रामकली के आने के बाद आने लगा था। शायद।

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